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प्रतीक्षा प्रतीक्षा प्रतीक्षा

जीवनकी संध्या हो गयी , पर तुम्हें देख नहीं पाया , रातकी छायाको दूरसे देखकर हृदयमें उथल - पुथल मची है । एक अशान्ति - सी घोर अशान्ति – हाय ! रात्रि आयेगी । क्या यों ही सो जाऊँगा ? क्या प्रतीक्षा व्यर्थ होगी ? ऐसा तो नहीं हो सकता । मैंने तुमपर विश्वास किया है , तुम्हारी बातपर विश्वास किया है । तुम निश्चय ही मिलोगे । शायद कोई अनन्य भक्त तुम्हें बाँधे बैठा है , शायद मेरा स्थान तुम्हारे लिये उपयुक्त रूपसे सजा नहीं है । तो मैं क्या करूं ? मुझे तो कुछ आता नहीं । मैं तो इतना ही जानता हूँ मैं तुम्हारा हूँ , तुम मेरे हो , बस । और यही तो तुमने अनेक वाणियों में सिखाया ही है ।  

                   पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।   
                      तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः । ।                     
  
  तुम्हें बड़े पकवान और भोग तो नहीं चाहिये । बड़े - बड़े यज्ञ - बड़ी - बड़ी इमारत , बड़प्पनका आडम्बर नहीं चाहिये । चाहिये , एक निर्मल भक्तिपूर्ण हृदय , जो तुम्हारा आधार लिये हो – केवल तुम्हारा सहारा । तुम्हारे सिवा और है ही कौन ? जिसका कोई सहारा ले ? तुम्हारे ही तो अनेक रूप हैं । तुम्ही तो उनमें प्राण डालते हो । फिर सब सहारे तुम्हारे ही तो हैं । मुझे बताओ , क्या कमी है ? जो कमी है उसे पूर्ण कर दो या पूर्ण करनेकी शक्ति भक्ति और ज्ञान दे दो । मैंने तो सब कसमर्पण कर दिया । अरे , मेरा था ही क्या ? सब तुम्हारा दिया ही तो था ।II । । फिर सब सहारे तुम्हारे ही तो हैं । बस , जब ‘ मेरा ' उठा लिया तो तुम्हारा तुम्हारा हो गया । | फिर आते क्यों नहीं ? अब भी मेरे पास एक अनमोल रत्न है - भक्ति ! तुम्हारे साक्षात्की असह्य प्रतीक्षा ! यह तो आनेपर ही चरणोंकी भेंट होगी । यह सबको तो सौंपा नहीं जा सकता , इधर - उधर फेंका नहीं जा सकता , अज्ञातको दिया भी नहीं जा सकता । अनमोल है और फिर तुम्हें प्रिय है इसीसे । । बातें करते हो , छिपकर । सुनायी तो देता है , पर दिखायी नहीं देते । आवाज सुनता हूँ , आँखें फाड़ फाड़कर देखता हूँ ; पर कुछ नहीं । क्या इन आँखोंसे नहीं देख सकता तो वे आँखें दो , जिनसे देख सकें । सभी जगह हो यह तो सत्य है ; तुम्हारी वाणी है – सत्य ही है । वृक्षोंकी , अनेक जीवोंकी ओटमें ऐसा छिपकर घूमते हो जो किसीको दिखायी ही नहीं देते - पहचाने ही नहीं जाते । इतनी बड़ी चादर ओढ़ रखी है कि जिधरसे चादर हटाओ चादर ही हाथ आती है ; पर तुम्हारा स्पर्श नहीं होता । कहते हो , मैं तो स्वयं ही मिलनेको उत्सुक हूँ । फिर मिलते क्यों नहीं ? तुमने आवाज दी , मैंने दरवाजा खोल दिया , फिर अब अन्दर कोई और है भी नहीं । देखते तो हो , रातकी अँधियारी करीब आती जा रही है । तुम्हीं सुला दोगे - दूरसे लोरी गाकर , मगर सामने नहीं आओगे ? क्या खेल है यह । तब क्या करूं ? कहाँ जाऊँ ? ढूंढ - ढूंढकर थक गया ; पर तुम्हारा ठिकाना नहीं मिला — तुमतक पहुँच नहीं पाया । तुमने कहा।   
  
                सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । 
                 सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ 
                         
        तो फिर कहींसे प्रकट क्यों नहीं हो जाते साक्षात् । स्वरूप ? मुझे तुम्हारी विशाल योगमाया जाननेकी देखनेकी अभिलाषा नहीं - दिव्य दृष्टि उसीके लिये आवश्यक है न ? मैं तो सौम्य रूप देखना चाहता हूँ । अरे , जब अर्जुन - से वीर और भक्त उस रूपको सहन नहीं कर सके , तब मैं क्या चीज हूँ । मुझे दिखाओ
        
         किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव 
            तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ 
         
    कहते हो – ‘ सादा रूप जान नहीं पाते - तेजोमय रूप सहन नहीं कर सकते तो वही रूप दिखाओ जो । गोपियोंको दिखाते थे — गोप - सखाओंको दिखाते थे , छोटा - सा सलोना रूप , जो कंसको दिखाया था — वह नहीं , प्रेमसे ओत - प्रोत आँखों में प्यारका अमृत छलकता हो , आग नहीं । हाथ उठाओ मुझे ऊपर उठानेको , गला दबानेको नहीं । ऐसा रूप तुमने कहा 
    
                 यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । 
                तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ 
    
    आँखें गड़ा - गड़ाकर मूर्तियों में देखता हूँ , आदमियोंमें हूँढ़ता हूँ , जानवरों में पहचाननेकी कोशिश करता हूँ । पर तुम लुके - छिपे फिरते हो – एक नकाब डालकर ! एक ऐसा जामा पहनकर सामनेसे गुजर जाते हो कि पहचाने नहीं जाते । क्या लुत्फ आता है तुम्हें इसमें ? चुपचाप चलते हो , सबको देखते हो , सबकी सुनते हो , चलनेकी आवाज भी आती है ; पर दिखायी नहीं देते । तुम्हीं शायद आते हो ; पर मैं जान नहीं पाता । तुम जनाते जो नहीं इसीसे । मैं तो आनेवाली रात्रिकी काली रोशनी देखकर घबरा उठा हूँ ! क्या तुम यों ही सुला दोगे ? ऐसा नहीं हो सकता । निश्चय है , धोखा नहीं हो सकता । हो ही नहीं सकता । तुम्हारी बात जो है 
    
                मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
                  मामेवैष्यति युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥
     
और एक ही बार तो नहीं कहा – फिर वादा किया 
      
             मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । 
             मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ 
      
      जब यहाँतक कहते हो कि ‘ मेरेको प्राप्त होगा । तो दर्शन तो निश्चय ही दोगे । कहीं बातों में कुछ हेर फेर तो नहीं ? तुम्हें तुम्हारे भक्त छलिया भी कहते हैं प्यारसे । नहीं , ऐसा नहीं जो हृदयमें ही बैठा हो उसका तो दर्शन साक्षात् होना ही है । तुम्हारी बात है , अविश्वास क्यों हो ? 
      
                   ‘ ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ' 
      
      तभी तो आँखें बन्दकर अन्तरमें घुसकर तुम्हें कितना ढूँढ़ता हूँ । तुम्हारा प्रकाश तो मिलता है ; पर तुम नहीं मिलते । न जाने कौन - से कोने में छिप जाते हो । धीरेसे आवाज भी देते हो , झनकार - सी , जो नस - नसको झिंझोर देती है । सुनता हूँ , मुग्ध होता हूँ ; पर तुम सामने नहीं आते । न तुम्हारे प्रकाशसे सान्त्वना है , न तुम्हारी आवाजसे तसल्ली ! वर्षोंसे इन्हींसे बहला रहे हो । तुम नहीं मिले तो कुछ नहीं मिला । निराश हो जाता हूँ ; पर मेरी निराशामें आशाका प्रकाश है । मैं जानता हूँ वह भी तुम्हारी ही देन है , ताकि मैं इतना सफर तय करके लौट न जाऊँ , कहीं रास्ता भूल न जाऊँ । विश्वास रखो , मैं कहीं और जा ही नहीं सकता । तुम्हारी बात सुनी थी 
      
                    सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । 
                अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
      
       तो मैंने सब तर्क कर दिया – मैंने तुम्हारी ओर मुख कर लिया तो सबकी ओर मेरी पीठ अपने - आप हो गयी । पाप - पुण्य , भुक्ति - मुक्ति सभीसे उदासीन हो गया । बस , लालसा रही तुम्हें जानकर सामने देखनेकी । यही अब जीवन है , यही विश्वास है । कहते हो , अभी गलेतक ही भक्ति - सरोवरमें डूबा हूँ । सत्य ही है ; सिर नहीं डुबोया । तुम दिखते नहीं तो आँखें तुम्हें ही तुम्हारी इन अनेक वस्तुओंमें हूँढ़ती हैं ; सभी आवाजों में कान तुम्हारी ही आवाज सुनना चाहते हैं । तुम मिलोगे तो जिह्वा तुमसे बात करेगी - भक्तिके सागरमें इसे भी डुबो हूँ — यही चाहते हो ? हाँ , तुमने कहा
       
              भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । । 
                    ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप । 
        
        क्या इसका यही तात्पर्य है ? तो और भक्ति कहाँसे लाऊँ ? जितना तुम देते हो उतना ही तो पाता हूँ । भक्ति तो संसारमें मिलती नहीं , तब कहाँसे लाऊँ ? संसारको तो तुमने मुक्तिसे भर दिया और भक्तिको केवल रख लिया अपने पास । जिसे जितना चाहते हो , देते हो । फिर कहते हो ‘ कम है ' ‘ काफी नहीं तो फिर पर्याप्त भक्ति ही दे दो । मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ मुझे उतनी पूर्ण भक्ति दे दो , जिसे देखने तुम सामने आ खड़े होते हो । बात एक ही है — तुम आओगे तो भक्ति साथ लाओगे ।तो और भक्ति कहाँसे लाऊँ ? जितना तुम देते हो उतना ही तो पाता हूँ । भक्ति तो संसारमें मिलती नहीं , तब कहाँसे लाऊँ ? संसारको तो तुमने मुक्तिसे भर दिया और भक्तिको केवल रख लिया अपने पास । जिसे जितना चाहते हो , देते हो । फिर कहते हो ‘ कम है ' ‘ काफी नहीं तो फिर पर्याप्त भक्ति ही दे दो । मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ मुझे उतनी पूर्ण भक्ति दे दो , जिसे देखने तुम सामने आ खड़े होते हो । बात एक ही है - तुम आओगे तो भक्ति साथ लाओगे । भक्ति तो पूर्ण होगी ही । नहीं , ऐसा नहीं । कंसके सामने आये तो भक्ति नहीं लाये ; उसे भक्ति नहीं दी । तो भक्ति तुम्हारी सजीव है , तुमसे आगे चलती है । भक्ति वह गंगा है जो सबको पावन करे , जिसका स्रोत तुम्हारे पास है । किधरसे बहे , यह रोक - थाम तुम्हारी है तो प्रभो ! भक्ति ही दो इतनी जो तुम्हें खींच लाये या जो मुझे तुमतक खींच ले जाये । संसार तो लुटा - लुटाकर देते हो - चाहे । जिसको तिसको ; और भक्ति इने - गिनेको परख - परखकर ! लो , अब तो शाम भी ढलती जा रही है । भयभीत अँधेरी रात्रिमें आकाशमें धीरे - धीरे चुपके - चुपके अपना शासन बढ़ाता जा रहा है ; मुझे डर लगता है । कितना  मूर्ख हूँ मैं , रात्रिसे डरता हूँ क्यों ? भूल गया था 
        
              अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । 
                यः प्रयाति स मद्धावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ 
        
यह सब सच है , पर प्रभु ! अन्तकालकी कौन जाने - तुम्हारी लीला जो अपरम्पार है । तो इससे पहले कि , रात्रिकी अँधियारी मुझे अपने आँचलमें ढाँप ले ; तुम आओ , निश्चय एक क्षणको ही , पर जताकर । ऐसा न हो कि मैं तुलसी चन्दन ही घिसता रहूँ और तुम चन्दन लगाकर चल भी दो । प्रभु ! मैं प्रतीक्षा करूंगा , प्रतीक्षा करता ही रहूँगा ।