मुक्ति किसे कहते हैं ?
मुक्तिका शाब्दिक अर्थ है - छुटकारा । फलतः मुक्तिका साधक जानता है कि हम बँधे हैं । अब उसे विचार करना चाहिये कि हम किसमें बँधे हैं ? गम्भीरतापूर्वक सोचनेपर यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि हम अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनोंमें बँधे हैं । हमारे अनुकूल परिस्थिति आती है , तब हम सुखी होते हैं और प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो दुखी होते हैं । संसारके ये दो रूप ही उसके स्वरूप हैं । इसलिये भगवान्ने कहा है
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि
जय -पराजय , लाभ हानि , सुख दुख को समान समझकर युद्ध ( उपलक्षणसे सांसारिक सारे कार्य ) करो तो तुमको पाप न लगेगा । अर्थात् बन्धन न होगा , तुम मुक्त हो जाओगे । ' वस्तुतः हमें सुख और दुख दोनोंसे छूटना है । शंका हो सकती है सुखसे भी छूटना पड़ेगा ? राम ! राम सुख छूट जायगा ? ' अरे सुख वह छूटेगा , जिसके साथमें दुख है और जो दुखोंका कारण है । ऐसे सुखको तो छोड़ना ही चाहिये । यदि दुख से मुक्त होना चाहते हैं तो दुखयुक्त सुखसे भी मुक्त होना पड़ेगा । अगर आप इस दुख युक्त सुखको छोड़े तो दुख आपको छोड़ेगा और यदि इस सुखको आप नहीं छोड़ेंगे तो उसके साथ लगा हुआ दुख भी आपको नहीं छोड़ेगा । यह बन्धन बना ही रहेगा । | आप कह सकते हैं कि सुखका त्याग बड़ा कठिन है । हमारा तो उद्योग ही सुखके लिये है । संसारमें हम जो कुछ करते हैं , वह सब कामनापूर्ति या सुखके लिये ही करते हैं
यद् यद् हि कुरुते किञ्चित्तत्तत् कामस्य चेष्टितम् ॥
हमारी मनचाही हो जाय , हमारी इच्छा पूरी हो जाय । दु : ख मिट जाय और सुख हो जाय । इसीके लिये हम सब कुछ करते हैं , पर यह चाहते और करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गये ; किंतु अभीतक दुःख मिटा नहीं और शाश्वत सुख न मिला । यह प्रत्येक व्यक्तिका अनुभव है । विचार करें - इस जन्ममें बचपनसे लेकर अबतक हमने दु : ख मिटाने और सुख प्राप्त करनेके लिये क्या - क्या नहीं किया ? अनेक प्रकारके उद्योग किये , परंतु अभीतक दु : ख मिटा नहीं और सुख मिला नहीं । इससे सिद्ध होता है कि दुःख मिटानेका और सुख - प्राप्तिका उपाय कोई दूसरा है । आजतक देखा - देखी विद्याध्ययन , धनोपार्जन , अनेक प्रकारके व्यवसाय आदि जो उपाय किये गये , उनमेंसे कोई भी कारगर सिद्ध न हुआ । अतः अब कोई दूसरा रास्ता पकड़ना चाहिये । वस्तुतः यह मानवजीवन संयोगजन्य सुख - दु : खसे ऊपर उठनेके लिये है । इन दोनों ( सुख - दु : ख ) - से श्रेष्ठ एक महान् सहज सुख है
सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः
वह अनन्त आनन्द इन्द्रियोंसे अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करनेयोग्य है ।योगी उसे उस अवस्थामें अनुभव करता है और वहाँ स्थित हुआ भगवत् - स्वरूपसे चलायमान नहीं होता है ।गीताके अनुसार यह आत्यन्तिक सुख है , इससे बढ़कर कोई सुख नहीं है और वहाँ दु : खका लेश भी नहीं है
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
अर्थात् ‘ वहाँ दुखोंके संयोगका ही वियोग है । दुख का स्पर्श भी नहीं हो सकता ,ऐसा महान् सुख है वह। हम उसे सुख की प्राप्ति कहें या सांसारिक सुख दुख से मुक्ति।इस महान् सुखकी प्राप्ति में शर्त यही है कि संयोगजन्य सांसारिक सुख छोड़ना हो।पड़ेगा।प्रश्न है हम सुख छोड़े कैसे इस ( दुखमिश्रित सुख ) के छोड़ने का सरलतम उपाय है जिनसे आपका सम्बन्ध है ,उन्हें तथा अभावग्रस्त को सुख दें ।सुख देनेके दो प्रकार हैं ( १ ) सुख देनेने जो सुख होता है , उस सुखको भी न लेना ;अर्थात् उस सुखको भोगकर प्रसन न होना और ( २ ) सुखके देनेमें जो दुःख परिश्रम हो ,उसे स्यीकार कर लेना ।सुख देकर जो सुख लेते हैं ,वह सुख बाँधनेवाला हो जायगा ;क्योंकि सुख देकर सुख ले लिया हिसाब पूरा हुआ किंतु सुख देकर वापस सुख नहीं लेते हैं तो हमारे दुखका मूल कट जाता है तात्पर्य यह कि सुखका त्याग कर दें अयवा सुख देकर सुख भोग न करें ये दोनों ही बातें मुक्ति देनेवाली हैं ।
स्वयं अपने आप भी आया हुआ सुख न लें अर्थात् अनुकूल परिस्थितिसे सुख मिलता है , उसका त्याग कर दें उस सुखके लिये उद्योग न करें इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिये कि जीविकाके लिये उद्योग ही न करें ,यत्न न करें ।प्रत्युत जिस जिस वर्णाश्रममें जो जहाँ हैं ,अपने कर्तव्यका तत्परतापूर्वक पालन करे ।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
कर्तव्य कर्म निरन्तर करते रहना चाहिये परंतु सुख लेने के लिये नहीं सुख देने के लिये । यह दृढ़ निश्चय रखना
चाहिये कि संयोगजन्य ,उत्पत्ति विनाश वाला सुख तो लेना ही नहीं है ,क्योंकि हम तो महान् सुखके ग्राहक हैं। जो उत्पत्ति वाला सुख है उसका अन्त तो विनाशजन्य दुख में होगा उस के अन्त में भी दुख ही होगा जिस सुख से पहले दुख है उसके अन्त में भी दुख ही होगा किंतु हमें वह सुख मिलता तभी है ,जब लौकिक पारलौकिक सुख से हम ऊपर उठ जायें शंका हो सकती है कि हम सुख लेने की इच्छा तो नहीं करते ,पर कोई दूसरा अपनी इच्छा से सुख दे देता है तो क्या करें ?|ऐसी अवस्था में सावधान रहें कि हमारा लक्ष्य तो सबकी सुख पहुँचाना है सुख लेना नहीं है । अतःदूसरा कोई हमें सुख पहुँचाये तो उसमें राजी नहीं होना है क्योंकि किसके पहुँचाये हुए सुख में राजी होंगे तो फिर दुख भी भोगना होगा । अतः दुख मिटाना है तो ऐहिक सुख भी छोड़ना होगा यदि हम दुख से मुक्ति चाहते हैं तो सुख से पहले ही मुक्ति लेनी होगी ।
|आप कह सकते हैं कि हमें ऐसा सहज सुख दीखता तो नहीं । यह सहज सुख तभी दीखेगी जब आप सुख और दुख दोनों से ऊपर उठ जायेंगे । संयोगजन्य सुख दुख से ऊपर उठनेपर वह विलक्षण सुख मिलेगा -इसका क्या प्रमाण है ?सुनिये निद्रा में संयोगमात्र का वियोग हो जाता है । उस समय ताजगी आती है यह सभीका अनुभव है यह बात स्वाभाविक ही है कि आठ पहर भी प्राणी इस वियोगजन्य सुख के बिना रह नहीं सकता । संयोगजन्य सम्बन्धजन्य सुख के बिना हम रह सकते हैं । अन्न जलादि जो हमारे जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक हैं , उनके बिना हम कई दिन रह सकते हैं , परंतु वियोगजन्य सुख निद्रा जो नींद में पराधीनता मिलती है ,उसके ) बिना आठ पहर भी नहीं रह सकते । जाग्रत् और स्वप्नमें तो संयोगजन्य सुख -दुख होते रहते हैं किंतु सभी का अनुभव है कि गाढ़ सुषुप्ति में दुख नहीं होते हैं ,अत उस समय भी एक विलक्षण सुख मिलता है । किंतु यह सुख भी है पराधीनता युक्त हो ;क्योंकि सुषुप्ति के नित्य न रहनेसे सुख भी हमेशा नहीं रहता ।सुषुप्तिका तात्पर्य गहरी गाढ़ निद्रा से है । गहरी नींद में कोई वस्तु व्यक्ति याद नहीं रहता अर्थात् हम जाग्रत् स्वप्न की सामग्री को भूल जाते हैं । बेहोशी रहने पर भी एक प्रकारका सुख होता है । जगने पर हम कहते हैं आज बड़े सुख से सोये ,कुछ भी याद न रहा । यदि जाग्रत् और स्वन को सामग्रियों से सावधानी पूर्वक विचार पूर्वक अपना सम्बन्ध त्याग दें तो वह सुख महान् एवं विलक्षण होगा । सुषुप्ति कै सुखको अपेक्षा नित्य स्वतन्त्र सहज सुख होगा । उसे हो आयातक |सुख कहते हैं ।' बुद्धिग्राह्यम् कहने का तात्पर्य सुषुप्ति का सुख बुद्धि नहीं है क्योंकि बुद्धि अविद्या लीन हो जाती है जबकि आत्यन्तिक सुख में बुद्धि जाग्रत् रहती हैं ।|
समाधिजन्य भी सुख होता है , किंतु समाधिसे व्युत्थान होनेपर वह सुख नहीं रहता । आत्यन्तिक सुखका कभी व्युत्थान नहीं होता है । वह सहज और निरन्तर समाधिसे भी अतीत स्वरूपभूत सुख है । इस सुखको प्राप्तिके लिये कुछ कीमत चुकानी पड़ेगी । कीमत है हमें संयोगजन्य सुख नहीं लेना है , वह इतना पक्का विचार कर लेना इस दृढ़ विचारको गोतामें ' व्यवसायात्मिका बुद्धि कहा है । इसको महिमा अपार है शास्त्रों में नाम जप , गंगा - स्नान ,एकादशी आदि व्रत दान पुण्य आदि आदि साधनको बहुत महिमा है । परंतु व्यवसायात्मि का बुद्धि को महिमा सर्वोपरि है । व्यवसायात्मिका बुद्धिका तात्पर्य एक पक्का निश्चय कर लेना कि हमें संसारका सुख तो लेना है हो नहीं । यह निश्चय सब साधनोंका मूल है , फिर नाम - जप , ध्यान , सत्संग , स्वाध्याय , तीर्थ , व्रतादि सम्पूर्ण साधन स्वतः स्वाभाविक होने लगेंगे किसी कारणले । उपर्युक्त साधन न हो पायें तो भी कोई हानि नहीं । इस ( पक्का निश्चय ) साधनको सिद्धि जब चाहे .तभी हो सकती है अभी हो सकती है । यदि आप यही समझे कि इतना शीघ्र कैसे हो सकती है ?तो कुछ समय लगाकर सिद्धि कर लें । वस्तुतः संयोगजन्य स्थितिजन्य वह सुख हमें नहीं लेना है , नहीं लेना है । इस बातपर अटल हो जाये तो मानो आपने मनुष्य - जीवनका बहुत बड़ा काम सिद्ध कर लिया । यह अभ्यासजन्य साधन नहीं है । अभ्यास ती नयी स्थिति बनायी जाती है ,किंतु त्यागमें तो छोड़ा और तत्काल ट गया ;मुक्ति प्राप्त कर ली ।
आप को जब भी और जो कोई भी व्यक्ति मिले आपको उसे सुख देना है उसका आदर सत्कार करना है उसे सुविधा देनी है । कोई भी दुखी मिल जाय तो समझे कि हमें बहुत बड़ा ग्राहक मिल गया । उसे सुख देकर उसको दुख ले लें । इस प्रकार सुख देनेकी प्रवृत्तिसे आपके सुख लेनेकी इच्छा सुगमतासे छूट जायगी । ज्ञान योग में भीतर से सुख का त्याग करना पड़ता है । और भक्ति योग में भगवान को सुख पहुँचाया जाता है ;
हमारी संस्कृति भी यही कहती है कि दूसरों को सुख देने में अपनी सुखा सक्ति का त्याग करना होता है अत माता पिता की सेवा करो आचार्य की सेवा करो अतिथि की सेवा करो पति की सेवा करो स्त्री पुत्रादि का पालन करो किंतु सावधान अपनी सुख सुविधा सर्वथा छोड़कर कर्तब्य बुद्धि से करो । इससे महान् सुख मिलेगा ।परंतु हमारी प्रवृत्ति ऐसी नहीं है । हम सुख देते हैं तो लेना भी चाहते हैं लेते भी है यह लेन देनका व्यापार प्रारम्भ कर देते हैंजिससे त्याग नहीं होता है और त्याग बिना शान्ति नहीं मिलती । सुख की इच्छा सुखका भोग और सुख की आशा का त्याग कर देने से हम दुखों से सदाके लिये छूट जाते हैं । इसीको मुक्ति कहते हैं । हमारी भावना तो केवल यह हो की
