सम रहनेका आशय
सम रहनेका अर्थ है अनुकूल परिस्थितिमें सुख और प्रतिकूल परिस्थितिमें दुःखका अनुभव न होना । असाध्य शारीरिक रोग , घोर अपमान , परिवारजनों द्वारा किये जानेवाले प्रतिकूल व्यवहार , भारी आर्थिक नुकसान , अपनी एवं प्रिय परिवारजनोंकी मृत्युमें आपको लेशमात्र भी दुःख नहो और स्वस्थ शरीर , अतिशय सम्मान , परिवारजनोंके अनुकूल व्यवहार , विशाल आर्थिक लाभमें आपको लेशमातर भी सुखका अनुभव न हो तो आप सम अवस्थामें हैं । प्रतिकूल परिस्थितिमें दु : ख होना इस बातका पक्का प्रमाण है कि आपको अनुकूल परिस्थितिमें सुख हुआ है । सुख - दु : ख महसूस होना विषमता है ।
समताका महत्त्व - जो व्यक्ति सम रहता है ,उसको प्राप्त परमात्माकी प्राप्तिका अनुभव हो जाता है । श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्ने कहा है
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापानयोः ॥
इसका अर्थ इस प्रकार है - जिसने अपने आपपर विजय प्राप्त कर ली है , उस शीत - उष्ण ( अनुकूलता प्रतिकूलता ) , सुख - दु : ख तथा मान - अपमानमें निर्विकार मनुष्यको परमात्मा नित्य प्राप्त हैं ।
सम कैसे रहें ।
१ - सुख - दुःख साधन - सामग्री हैं
जिस उपायसे प्राप्त परमात्माकी प्राप्तिका अनुभव हो जाता है , उसे साधन कहते हैं । साधनकी दृष्टिसे सुख एवं दु : खका समान महत्त्व है , दोनों साधन करनेकी सामग्री हैं । यदि आप सुखमें साधन करेंगे तो आपको परमात्मा मिल जायँगे , यदि आप दु : खमें साधन करेंगे तो भी आपको परमात्मा मिल जायँगे । सुखमें किये जानेवाले साधनका नाम है – सेवा , दुःखमें किये जानेवाले साधनका नाम है - त्याग । सेवाका अर्थ है - परहितकी भावना रखना , परहितके उद्देश्यसे प्रवृत्ति ( कार्य ) करना , उसके बदलेमें अपने लिये किसीसे कभी भी किसी भी प्रकारकी चाह ( कामना ) न रखना । यदि आप सब प्रकारको कामनाओंका त्याग कर देंगे तो नाशवान् संसारसे आपका मोहजनित सम्बन्ध टूट जायगा और परमात्मासे अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव हो जायगा । त्यागका अर्थ है - जिस कामनाकी अपूर्तिसे आपको दु : ख हुआ है , उस कामना एवं अन्य सभी कामनाओंका त्याग कर देना । कामनाओंके त्यागसे तत्काल शान्ति मिल जाती है , प्रभुमिलनका अनुभव हो जाता है । सुखमें सेवाके माध्यमसे कामनाका त्याग किया जाता है और दु : खमें सीधे ही कामनाका त्याग किया जाता है ।
२ - सुखसे लाभ नहीं , दुःखसे हानि नहीं
सरल शब्दोंमें ‘ सुख ' का अर्थ उन सभी वस्तुओं , व्यक्तियों एवं परिस्थितियोंसे है , जिनसे व्यक्तिको सुख ( अस्थायी आराम ) मिलता है , जैसे स्वस्थ शरीर , सेवा करनेवाले परिवारजन , उच्च पद , प्रतिष्ठा , धन , सम्पत्ति आदि । दुःखका अर्थ उन सभी व्यक्तियों एवं परिस्थितियोंसे है , जिनसे मनुष्यको दुःख होता है , जैसे अस्वस्थ शरीर , प्रतिकूल चलनेवाले एवं दुर्व्यवहार करनेवाले परिवारजन , पद , प्रतिष्ठा , सामान , सम्पत्तिका न रहना आदि । सुखसे कोई लाभ नहीं होता , दु : खसे कोई हानि नहीं होती – इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - विचार कीजिये - मेरी जरूरत क्या है और वह कैसे पूरी होती है । मेरे शरीरकी जरूरत क्या है और वह कैसे पूरी होती है ? उत्तर मिलेगा - मेरी जरूरत यह है कि मेरी चिन्ता ( दु : ख , तनाव , भय , निराशा , अशान्ति ) समूल । मिट जाय , मुझे स्थायी प्रसन्नता तथा परमात्मा मिल जायें । यह जरूरत पूरी होती है - मोह , ममता , कामनाका त्याग करनेसे , सबकी सेवा करनेसे , प्रभुके शरणागत होने से करनेसे , उनको प्रेम देनेसे , उनके भक्त बननेसे । मेरे शरीरकी अनेक जरूरतें हैं , जैसे श्वास , हवा , जल , भोजन , वस्त्र , आवास , घरेलू सामान , अन्य सैकड़ों वस्तुएँ आदि । शरीरकी जरूरतें पूरी होती हैं — प्रारब्धसे , प्रभुके विधानसे । इन जरूरतोंकी पूर्तिमें परिवारजन , मित्र , सम्बन्धी आदि माध्यम बन सकते हैं । मेरी जरूरतकी पूर्तिसे सुख - दुःखका कोई सम्बन्ध नहीं है । मेरे जीवनमें सुख है , तब भी और दुःख है तब भी , मैं अपनी जरूरत पूरी कर सकता हूँ । मेरी जरूरतकी पूर्ति सुख - दुःखमें से सुख - दुःखपर आधारित नहीं है । मैं सुख एवं दुःख – दोनों ही परिस्थितियों में ममता , कामना , मोहका त्याग कर सकता हूँ , शरणागत हो सकता हूँ । मेरे शरीरकी जरूरतोंकी पूर्तिसे भी सुख - दुःखका कोई सम्बन्ध नहीं है । सुख है तब भी और दुःख है तब भी , मेरे शरीरको जो सामान , सुख , सुविधाएँ मिलनी हैं , वे निश्चित रूपसे मिलेंगी , उनमें तिलमात्रकी कमी नहीं होगी , राईमात्रकी भी वृद्धि नहीं होगी । ऐसा नहीं है कि सुखमें वे बढ़ जायँगी और दु : खमें घट जायँगी । इस वास्तविकताको समझनेमात्रसे सुख दु : खमें सम रहनेकी ताकत आ जाती है । स्पष्ट है कि सुखसे आपको कणमात्र भी लाभ नहीं होता है और दुःखसे आपको कणमात्र भी हानि नहीं होती है ।
३ - सुख - दुःख आने - जाने वाले हैं , रहनेवाले नहीं
सुखका एक नियम है सुख मिलता है , मिलते ही घटना आरम्भ हो जाता है , घटते - घटते अन्तमें मिट जाता है , चला जाता है , रहता नहीं है । दु : खका भी यही नियम है – दु : ख आता है , आते ही घटना आरम्भ हो जाता है , घटते - घटते अन्तमें मिट जाता है , चला जाता है , रहता नहीं है । हर सुख मिटकर दुखमें बदलता है , हर दुःख मिटकर सुखमें बदलता है । इस दृष्टिसे सुख वास्तवमें दु : ख है और दु : ख वास्तवमें सुख है , जो सुख आपके पास रहेगा ही नहीं , उसके मिलनेपर क्या राजी होना । इसी प्रकार जो दु : ख आपके पास रहेगा ही नहीं , उसके मिलनेपर क्या दु : ख होना । इस चिन्तनके आधारपर आप सरव - दःखमें सम रह सकते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता ( २ । १४ ) में भगवान्की वाणी है
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तस्तितिक्षस्व भारत ।
इसका अर्थ है - हे कुन्तीनन्दन ! इन्द्रियोंके विषय ( जड पदार्थ ) तो शीत ( अनुकूलता ) और उष्ण ( प्रतिकूलता ) - के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं ( तथा ) आने - जानेवाले ( और ) अनित्य हैं । हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! उनको ( तुम ) सहन करो ।
स्पष्टीकरण - सुखके तीन अर्थ हैं — पहला – सुख सामग्री , दूसरा – सुख - सामग्रीके मिलनेपर अनुभव होनेवाला अस्थायी आराम ( खुशी ) और तीसरा - मनकी बात या इच्छा पूरी हो जाना । दुःखके भी तीन अर्थ हैं - पहला सुख - सामग्रीका न रहना , दूसरा - सुख - सामग्रीके न रहनेपर अनुभव होनेवाली मानसिक तकलीफ और तीसरा - मनकी बात या इच्छा पूरी न होना । संसार प्रतिपल बदलकर नाश की तरफ जा रहा है । इस दृष्टिसे सुख - सामग्री , अस्थायी आराम , इच्छापूर्तिका आराम भी प्रतिपल बदलकर नष्ट हो रहा है , पलभरके लिये भी वह वैसा नहीं रहता है । दु : खका भी प्रतिपल नाश हो रहा है , पल भरके लिये भी वह वैसा नहीं रहता है । संसारमें जो मिलेगा , वह घटेगा , मिटेगा , रहेगा नहीं , चाहे वह सुख हो अथवा दु : ख हो ।
४ - सुख - दुःख मुझमें नहीं हैं
प्रभुने आपको दो अलौकिक शक्तियाँ दी हैं — विवेक तथा विश्वास । विवेकके प्रकाशमें विचार करनेपर आपको अनुभव होगा - ' मैं ' शरीर नहीं हैं , शरीर मेरा नहीं है , शरीर मेरे लिये नहीं है । सुख दु : खका सम्बन्ध शरीरसे है - मुझसे नहीं । ' मैं ' तो सम ही हूँ । विश्वासके आधारपर यदि आप इस सत्यको स्वीकार कर लें कि ' मैं ' परमात्माका अंश हूँ , उनका अंश होनेके कारण मैं चेतन , अमल , अविनाशी और सहज सुख अर्थात् आनन्दका भण्डार हूँ तो आपको अनुभव होगा - ' मैं ' सदैव सम ही हूँ , मुझमें न सुख है , न दुःख है । मैं भगवान्का अंश हूँ - इस अनुभूतिके न होनेमें मुख्य भूल है - शरीरको मेरा , मेरे लिये और ' मैं ' मान लेना ।
५ - सुख - दुःख है ही नहीं
किसी भी विशेष परिस्थितिका नाम सुख एवं दु : ख नहीं है । सुख - दुःख क्या है ? उत्तर है — मनकी बात ( इच्छा , कामना , चाह ) पूरी हो जाना सुख है । मनकी बात पूरी न होना दु : ख है । उदाहरणके लिये - आप किसी विशेष स्थानपर रहना चाहते हैं , लेकिन आपको वहाँसे जाना पड़ जाय तो जाना आपके लिये दु : ख हो गया । आप वहाँसे तत्काल जाना चाहते हैं , लेकिन वहाँ आपको रहना पड़ जाय तो रहना आपके लिये दु : ख हो गया । अब सोचिये - जाना आपके लिये दुःख है या रहना आपके लिये दु : ख है । उत्तर है — न जाना दु : ख है , न रहना दु : ख है । मनकी बात पूरी न होना ही दुःख है । यदि आप यह निर्णय कर लें कि मनकी बात पूरी करना मेरे वशकी बात नहीं है , इसलिये इस क्षणके बाद मैं मनमें कोई बात अर्थात् कामना रखेंगा ही नहीं , केवल सद्भावना रखकर अपना कर्तव्य कर दूंगा , तो आप स्वतः सम अवस्थामें रहेंगे ।
