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' जिन खोजा तिन पाइयाँ '

कहते हैं कि कोई राजा शत्रु से पराजित होकर भागा । उसने कई बार सैन्य एकत्र करके शत्रुपर आक्रमण किया , पर सफल न हो सका । भागकर वह जिस गुफामें छिपा था , उसमें एक मकड़ी एक स्थानपर अपना तन्तु लगाकर दूसरे स्थानको उछाल मार रही थी । वह अपना तन्तु वहाँतक पहुँचाना चाहती थी । राजा चुपचाप मकड़ीको देखने लगा । मकड़ी उछलती और विफल होकर गिर जाती । बार - बार यही क्रम चलता रहा । अंतमें मकड़ीने अपनी विफलताओंपर विजय पायी । भूपतिने मकड़ीसे शिक्षा ली , उन्होंने निराशा त्यागकर शत्रुपर प्रत्याक्रमण किया । संयोगवश इस बार विजयलक्ष्मीने वरमाला उन्हींके गलेमें डाली ।

जरासन्ध मथुराकी सत्रह चढ़ाइयोंमें बुरी तरह पराजित हुआ , पर उसने भी अंतमें विजय लेकर छोड़ी । मैंने अपनी आँखों देखा है कि लोग प्रयागमें त्रिवेणीजीके गम्भीर जलमें पैसे छोड़ते हैं और मछुए डुबकी लगाकर उन्हें निकाल लेते हैं । एक , दो , चार , दस - चाहे जितनी डुबकियाँ लगानी पड़े , वे पैसेको निकाल ही लेते हैं । पाश्चात्त्य लोगोंने उस धधकते हुए मरुस्थल सहारा ( अफ्रीका ) - में नील नदीका उद्गम ढूंढ़ निकाला । अपने सिरपर चमकते हुए उस लाल - लाल तारे ( मंगल ) - का पता पा लिया । जब लोग इतनी कठिन - कठिन वस्तुओंको प्राप्त कर लेते हैं तो क्या मैं अपने लक्ष्यको नहीं पा । सकता ? देखें ; असफलता कबतक मेरा पीछा करती है । या तो मैं ही रहूँगा या यह विफलता ही l

लगातार पाँच वर्षसे इस ओर लगा हूँ । न दिनको चैन , न रात्रिमें विश्राम । कभी जंगलोंमें , कभी पर्वतोंपर , कभी नगरोंमें , कभी नदियोंके किनारे सभी प्रकारके स्थानोंमें गया । मेरी रात्रि कभी घोर वनमें शिलाके ऊपर , कभी धर्मशालामें , कभी किसी सूने मन्दिरमें और कभी किसी पथके वृक्षतले बीतती है । सभी रंगके साधुओंको देखा लाल , पीले , गेरुए , सफेद और राजाओं - जैसे ऐश्वर्यवान् तथा नंगे भभूतिये भी । मुझे ‘ बं शंकर की दम लगानेवाले , ‘ जय मैया ' का प्याला चढ़ानेवाले और केवल फलाहारी या दुग्धाहारी भी मिले । भोगी , योगी , सिद्ध , पाखण्डी , भक्त , ज्ञानी , याज्ञिक प्रभृति सबके दर्शन हुए । सब हुआ , पर मुझे मेरे योग्य गुरु न मिले । न मेरा भटकना बंद हुआ । और न मुझे मेरे अनुरूप कोई मिला ही ।

बहुतोंने मुझपर दया की , दीक्षा देनेको भी बहुत तत्पर थे । जिनके दर्शनोंको लोग तरसते हैं , वे महापुरुष , सिद्ध योगी भी मेरे ऊपर प्रसन्न हुए । मैं चाहता तो वे भी मुझे अपने चरणों में रख लेते , पर मैं चाहता तब तो ! मैं जो चाहता था , वह वहाँ भी मुझे नहीं मिला । मेरी अभीष्टसिद्धि वहाँ भी दिखायी न दी !

आप सोचते होंगे कि मैं ऐसी क्या विशेषता चाहता था । मैं सिद्ध या त्रिगुणातीतके फेरमें नहीं था । बात यह है कि मैं न तो अपनेपर विश्वास करता और न अपने मनपर । सभी महापुरुष साधन बतलाना चाहते थे - ‘ साधन करो , आत्मोद्धार होगा । ' बात तो ठीक थी , पर साधन करे कौन ? मुझे विश्वास नहीं कि मैं साधन कर सकेंगा । मैं तो एक ऐसा गुरु चाहता था , जो कह दे
 ' अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि '

जो मेरा पूरा उत्तरदायित्व ले ले । चाहे साधन करावे या तपस्या , पर मनको उस साधनमें प्रवृत्त रखनेका भार उसपर हो । जो भी कराना हो करावे , पर मैं न अपने अच्छे कर्मोका उत्तरदायी रहूँ न दुष्कर्मोंका ।मुझसे साधन हो तो ठीक और मैं अहंकारी रहूँ तो ठीक । सब वही जाने , मैं कुछ न जानँ । ऐसा उत्तरदायित्व लेनेवाला मुझे कोई कहीं भी नहीं मिला ।

निराश हो चुका था । भटकता हुआ व्रजमें पहुँचा । कई दिनका भूखा था , मुझे पता नहीं किसने लाकर वे रोटियाँ दीं । वे एक वृद्ध महात्मा थे , इतना ही जानता हूँ । बिना माँगे वे रोटियाँ लेकर आये और बोले - ' तुम बहुत भूखे हो ; लो , इन्हें पा लो । ' मैंने रोटियाँ ले लीं ,उस शाकके संग मुझे रोटियां में अमृतका स्वाद आया । मै पुछ भी न सका , भोजन करके देखता हैं तो महत्मा जी दिखायी नहीं दिये।

गोवर्धन आया और वहाँसे चन्द्रसरोवर गया । एक वृद्ध महात्मा वहाँ रहते थे । इतने प्रेमसे मिले मानो में  उनका चिरकालसे वियुक्त पुत्र होऊँ । उनके प्रेमने हृदयके बाँधको तोड़ दिया । मैं उनके चरणोंके समीप बैठकर फूट - फूटकर रोने लगा । उन्होंने मुझे आश्वासन दिया , आँसू पोंछे और रोनेका कारण पूछा । धीरे - धीरे मैंने अपने भटकनेका सारा वृत्तान्त कह सुनाया , अपने उद्देश्यको भी निवेदन किया । वे थोड़ी देर मौन रहे । कुछ सोचकर कहने लगे – “ भटकना व्यर्थ है ; मैं यह तो नहीं कहता कि महापुरुषों में तुम्हारे उद्देश्यको पूर्ण करनेकी शक्ति नहीं है , पर ऐसे महापुरुषोंको इस प्रकार भटकनेसे नहीं पाया जा सकता । ऐसे महापुरुषोंको पाना और श्यामसुन्दरको पाना एक ही बात है । इस गिरिराजकी तलहटीमें बहुतोंने उस नन्दनन्दनको पाया है । तुम भी अन्वेषण करो , सम्भव है पा सको । तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध होगा । यदि गुरु ही चाहिये तो उसका पता वही बता सकेंगे । मुझे कोई दूसरा मार्ग तो दीखता नहीं ।

महात्माजीको प्रणाम करके मैं उनके स्थानसे लौट आया । अब मेरा एक ही काम रह गया - ‘ प्रात : नेत्र खुलते ही चल देना , जहाँ जल मिले वहीं नित्यकर्म करके दिनभर गिरिराजकी परिक्रमा करते रहना । यदि कोई कुछ बिना माँगे खानेको दे दे तो ग्रहण कर लेना ।मुझे स्मरण नहीं कि वहाँ कभी उपवास करना पड़ा हो ।         मैं सीधे मार्गसे परिक्रमा तो करता न था , कभी आस - पासकी कुंजोंको ढूँढ़ता और कभी गिरिराजके ऊपर चढ़कर इधर - उधर देखता । कभी पीछे लौट पड़ता । वहाँके लोग मुझे पागल समझने लगे । मैं रात्रिमें किसी शिलापर लेट रहता , जैसे ही नेत्र खुलते , रात्रिमें भी इधर - उधर कुंजोंको देखने चल देता । फिर नींद आती तो किसी भी शिलापर सो रहता ।

मुझे इस प्रकार पूरे दो महीने बीत गये । जी ऊबने लगा । निश्चय किया कि अब तो उनके दर्शन करके ही अन्न या जल ग्रहण करूंगा । यदि शरीरको छूटना ही हो तो यहीं छूटे । भूखे - प्यासे चलना कठिन तो अवश्य हो गया ; फिर भी जितना हो सकता था , चलता था । इस प्रकार भी छः दिन व्यतीत हो गये ।

 रात्रिके बारह बजे होंगे । मेरी नींद खुली , पूर्णिमाके चन्द्रमाको ज्योत्स्नासे वनभूमि आलोकित हो रही थी । मैं शिलापरसे उठ बैठा । एक बहुत सुन्दर - सा बछड़ा आया और मेरी शिलाको सँघकर उछलता हुआ एक ओर दौड़ गया । मैंने सोचा किसीका बछड़ा छूट गया होगा ; पर दृष्टि उठाते ही बहुत - सी गायें और बछड़े चरते हुए दीख पड़े । इतनी रात्रिमें कौन गायें चरा रहा है ? ' मैं चरवाहेको देखने उठा ।

 पता नहीं मेरी अशक्ति कहाँ चली गयी थी । शरीरमें विलक्षण स्फूर्ति थी । मैं गायोंके पास गया , पर वहाँ कोई चरवाहा नहीं दिखायी पड़ा । एक कुंजसे कुछ शब्द आ रहे थे , मैं उधर ही बढ़ गया । मैंने बाहरसे ही पुकारा “ अरे इतनी रात्रिको कौन गायें लाया है ? ' कुछ लड़के कुंजसे निकल आये । वे लड़के कैसे थे ? कैसे बताऊँ ? देवता भी इतने सुन्दर होते होंगे ? संदेह ही है । उनमें एक साँवले रंगका बालक था , उसे तो देखकर दृष्टि वहीं रुक गयी । उसीने व्रजभाषामें कहा ‘ कहा है ? गायनने तो हम ल्याये हैं , पै तू इतनी रात कैं इतै च्यों डोल रह्यो है ? ' और वे सब मेरे समीप आ गये ।

 एकने कहा - ' दादा ! यो बावरो भूखो सो लगै , याहूँ कछू खवावौ । ' उनमें से एक जो सबसे बड़े थे , गोरे - गोरे - से , उन्होंने कहा - ' अच्छो , तू दूध तौ पी ले । मैंने सिर हिला दिया । ‘ च्यों ? तोय भूख नाय लगी ? " भूख तो लगी है , पर मैंने प्रतिज्ञा कर रखी है । ' वे सब हँस पड़े । उस साँवले कुमारने कहा - ‘ प्रतिज्ञा कहा करी है ? ' उसमें कुछ ऐसा आकर्षण था कि मैं उन बच्चों से भी कुछ छिपा न सका । अनावश्यक था , फिर भी मैंने अपनी सारी दशा कही , अपनी प्रतिज्ञा भी सुनायी ।

ताली बजाकर वे सब हँस पड़े । ओह ! उनके हास्यमें कितना आनन्द था ! ' बावरा है , बावरो । ' फिर उस साँवलेने हँसते हुए कहा - ' तू मोहूँ गुरू बनाय ले । च्यों मोय गुरू बनावैगो ? देख इतै उतै बावरो सो डोलियो नहीं , दादा ते कह देंगो , बहुत मारैगो । हाँ ! मैं जो कछू कहूँगो , सो तोय करनो परैगो । करनो तो कछू नायें , मेरे ढोरनने घेर लायो करियो । खेलनमें तो छुट्टी । अच्छा ले , दादा ! या कें दूध प्या । ना पीवै तो चाँटा मारकै प्या । ' वह हँसने लगा । ‘ देख , तू बावरो मत बने । दादा तोय अपने संग राखैगो । ' मैं उस चरवाहेकी बातोंको सुन रहा था । उसके बचपनपर मुझे बरबस हँसी आ गयी ।

सचमुच उनके दादा ( बड़े भैया ) - ने दूधका बर्तन मेरे मुँहसे लगा दिया । वह गुदगुदाने लगा । अजी दूध भी कहीं इतना स्वादिष्ट होता है ? वह अमृत होगा अमृत ! पता नहीं मैं कितना पी गया । मुझे तो ऐसा लगता है कि दो - चार सेर अवश्य पी गया होऊँगा । भर पेट पिया । दूध पिलाकर उन्होंने एक बछडेको , जो दूर भाग गया था , घेर लानेको कहा । मैं उस बछडेको लौटाने चला ।

 चंचल बछड़ा मुझे देखते ही चौकड़ी भरकर भागा । मैं उसके पीछे दौड़ा । सहसा किसी वृक्षकी ठोकर लगी , मैं धड़ामसे गिर पड़ा  वे दौड़े उठानेको ।

सहसा नींद खुल गयी । ' अरे क्या यह सब स्वप्न था ? ' हुआ करे । मैंने प्रभुको प्रणाम किया । अवश्य ही उन्होंने मुझे इस विशाल स्वप्नमें आदेश दिया है |

 ‘ उद्योग करो , सफलता तो निश्चित ही है । करना कराना सब हमारे हाथमें है । प्रयत्न छोड़ो मत । हताश होनेका कोई कारण नहीं । मैं तुम्हारे साथ हूँ ।