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संदेह करना छोड़ दो ?


कुसंगति , कुकर्म , बुरे वातावरण , खान - पानके दोष आदि अनेक कारणोंसे मनुष्यमें कई प्रकारके दोष आ जाते हैं , जो देखनेमें छोटे मालूम होते हैं , ( यही क्यों ? ) बल्कि आदत पड़ जानेसे मनुष्य उन्हें दोष ही नहीं मानता , पर वे ऐसे होते हैं , जो जीवनको अशान्त , दुखी बनानेके साथ ही उन्नतिके मार्गको भी रोक देते हैं और उसे अध : पतनकी ओर ले जाते हैं । ऐसे दोषोंमेंसे कुछपर । यहाँ विचार किया जा रहा है

१ . मुझे तो अपने को ही देखना है - 

इस विचार वाले मनुष्यका स्वार्थ छोटी - सी सीमा में आकर गन्दा हो जाता है । ‘ किस काम में मुझे लाभ है , मुझे सुविधा है ' , ‘ मेरी सम्पत्ति कैसे बढ़े ' , ' मेरा नाम सबसे ऊँचा कैसे हो ' , ‘ सब लोग मुझे ही नेता मानकर मेरा अनुसरण कैसे करें इसी प्रकारके विचारों और कार्यों में वह लगा रहता है । मेरे किस कार्य से किसकी क्या हानि होगी ' , ‘ किसको क्या असुविधा होगी ' , ‘ किसका कितना मान भंग होगा ' , किसके हृदयपर कितनी ठेस पहुँचेगी , विचार करनेकी इच्छा गन्दे स्वार्थी हृदयमें नहीं होती । वह छोटी - सी सीमामें अपनेको बाँधकर केवल अपनी ओर देखा करता है ; फलस्वरूप उसके द्वारा अपमानित , क्षतिग्रस्त , असुविधा प्राप्त लोगों की संख्या सहज ही बढ़ती रहती है , जो उस  की यथार्थ उन्नतिमें बड़ी बाधा पहुँचाते हैं ।

२ . भगवान् और परलोक किसने देखे हैं ? 

भगवान् और परलोकपर विश्वास न करनेवाला मनुष्य यह कहा करता है । ऐसा मनुष्य स्वेच्छाचारी होता है । और किसी भी पापकर्ममें प्रवृत्त हो जाता है । अमुक बुरे कर्मका फल मुझे परलोकमें , दूसरे जन्ममें भोगना पड़ेगा या अन्तर्यामी सर्वव्यापी भगवान् सब कर्मोको देखते हैं , उनके सामने मैं क्या उत्तर दूंगा - इस प्रकारके विश्वासवाला मनुष्य सबके सामने तो क्या , छिपकर भी पाप नहीं कर सकता , पर जिसका ऐसा विश्वास नहीं है , वह केवल कानूनसे बचनेको ही प्रयत्न करता है । उसे न तो बुरे कर्मसे अर्थात् पापसे घृणा है , न उसे किसी पारलौकिक दण्डका भय है । आजकलकी घूसखोरी - चोरबाजारीका प्रधान कारण यही है और जबतक यह अविश्वास रहेगा , तबतक कानूनसे ऐसे पाप नहीं रुक सकते । पापोंके रूप बदल सकते हैं , पर उनका अस्तित्व नहीं मिट सकता है और जब मनुष्यका जीवन इस प्रकार पापपंकमें स्वेच्छापूर्वक फँस जाता है , तब उसकी उन्नति कैसे हो सकती है ? वह तो वस्तुतः अवनतिको ही - अध : पतनको ही उन्नति और उत्थान मानता है । ऐसे मनुष्यको इस लोकमें दुःख प्राप्त होता है और भजन - ध्यानकी उससे कोई सम्भावना ही नहीं रहती । अतः मनुष्य - जीवन के परम लक्ष्य भगवत्प्राप्तिसे भी वह वंचित ही रहता है । उसे भविष्यमें बार - बार आसुरी योनि और अधमगति ही प्राप्त होती है । यही बात भगवान् गीतामें कहते हैं
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
 मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥   

३ . मेरा कोई क्या कर लेगा ? 

संसारमें सभी मनुष्य सम्मान चाहते हैं । जो मनुष्य ऐंठमें रहता है , दूसरोंको सम्मान नहीं देता , कहता है - ' मुझे किसीसे क्या लेना है , मैं किसी की क्यों परवा करूँ , मेरा कोई क्या कर लेगा ? ' वह इस अभिमानके कारण ही अकारण लोगोंको अपना बैरी बना लेता है । दूसरोंकी तो बात ही क्या , उसके घरके और बन्धु - बान्धव भी उसके पराये हो जाते हैं । वह अभिमानवश स्वयं किसीकी परवा नहीं करता ,किसीसे सुख - दु : खमें हिस्सा नहीं बाँटता और उनमें अपनेको पुजवाना चाहता है , फलस्वरूप सभी उससे घृणा करने लगते हैं और उसके द्वेषी बन जाते हैं । वह इसे अपना आत्मसम्मान या गौरव मानता है , पर है यह उसकी मूर्खता । इस प्रकारका अभिमान ऐसे सबसे बहिष्कृत - अकेला - असहाय बना देता है और उसकी उन्नति रुक जाती है । | ‘ क्या करूँ मैं तो निरुपाय हूँ , मुझसे ऐसा नहीं हो सकता ' — इस प्रकार आत्मविश्वाससे विहीन मनुष्य निराश , विषाद , शोकमें निमग्न और अकर्मण्य - सा हो जाता है । पाप हैं ; पर मुझसे वे नहीं छूट सकते ' , ' मुझमें अमुक दोष है , पर मैं उससे लाचार हूँ ' , ' काम तो बहुत उत्तम है , पर मैं उसे कैसे कर सकता हूँ , ' ' भगवान् हैं , महात्माओंको मिलते भी होंगे ! पर मुझको क्यों मिलने लगे ? ' ' भजन करना अच्छा है , पर मुझसे तो हो ही नहीं सकता ' - इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्रमें उत्साहहीन होकर जीवन - यापन करनेवाला मनुष्य न तो कभी उत्तम कार्य आरम्भ कर सकता है और न जीवनके किसी भी क्षेत्रमें सफलता ही पा सकता है । ' मेरा कोई नहीं है , सभी घृणा करते हैं ' – इत्यादि अपनेमें हीनताकी भावना करते - करते मनुष्यको ऐसा दीखने लगता है कि उससे सभी घृणा करते हैं । यों सोचते - सोचते वह स्वयं भी अपनेसे घृणा करने और अपनेको किसी भी योग्य न समझकर मुँह छिपाता फिरता है । ' कोई मुझे देख न ले , देखेगा तो घृणा करेगा ' ; इस प्रकार किसीके सामने आकर कुछ भी करनेका साहस उसका नहीं होता । ऐसा मनुष्य यदि कुछ करता भी है तो प्रायः घुल - घुलकर रोता हुआ ही करता है । मैं तो बस , दु : ख भोगनेके लिये ही पैदा हुआ हूँ ' - बात - बातमें चिढ़नेवाले और जरा - जरा - सी प्रतिकूलतापर दु : ख माननेवाले पुरुषका सारा पौरुष चिढ़ने , अन्दर - ही - अन्दर जलने और दु : ख भोगनेमें ही समाप्त हो जाता है । उसका दु : खदर्शी चिड़चिड़ा स्वभाव उसे पल - पलमें दुखी करता है । बिना चिढ़ाये ही उसे दीखता है कि अमुक मुझे चिढ़ा रहा है , अमुक मुझे दु : ख देनेके लिये ही हँस रहा है । मुझपर दु:ख - ही - दु:ख आ रहे हैं । ' ' मैं सुखी होने का ही नहीं , मेरे भाग्यमें तो बस दु : ख - क्लेश ही बढ़ा है । इस प्रकार कल्पित दुःख के घोर जंगल में वह अपने को घिरा पाता है । ऐसे मनुष्यों में कई पागल हो जाते हैं । कुछ अपना अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं । ऐसे मनुष्य गम्भीरता से किसी विषयपर विचार नहीं कर पाते , दिन - रात दु:ख - चिन्तनमें और सभीको दुःख देनेवाला मानकर उनसे द्वेष करने में लगे रहते हैं । परिणामतः उदासी , निराशा , मुर्दनी , क्रोध , उद्विग्नता , मस्तिष्क - विकृति , उन्माद आदि दोष — इन लोगोंके नित्य संगी बन जाते हैं ।

४ . जगत्में कोई अच्छा है ही नहीं - 

दोष देखते - देखते मनुष्यकी इस प्रकार आँखें बन जाती हैं कि बिना दोषके होते हुए भी उसको लोगों में दोष ही दिखायी देते हैं । वैसे ही , जैसे हरा चश्मा लगा लेनेपर सब चीजें हरी दिखायी देती हैं । ऐसे फिर कोई अच्छा दिखता ही नहीं । महापुरुष और भगवानुमें भी उसे दोष ही दीखते हैं । उसका निश्चय हो जाता है कि जगत्में कोई भला है ही नहीं अतएव वह स्वयं भी भला नहीं रह सकता । दिन - रात दोषदर्शन और दोषचिन्तन करते - करते वह बाहर और भीतरसे दोषोंका भण्डार बन जाता है । |

५ . लोग मुझे अच्छा समझें - 

इस भावना वाले मनुष्यमें दम्भकी प्रधानता होती है । वह अच्छा बनना नहीं चाहता , अपनेको अच्छा दिखलाना चाहता है । यों जगत्को ठगने जाकर वह आप ही ठगा जाता है । उसके जीवनसे सच्चाई चली जाती है । लोग जिस प्रकारके वेष एवं भाषासे प्रसन्न होते हैं , वह इसी प्रकारका वेष धारण करके वैसी ही भाषा बोलने लगता है । उसके मनमें न खादीसे प्रेम है , न गेरुआसे और न नाम - जपसे : पर अच्छा कहलानेके लिये वह खादी पहन लेता है , गेरुआ धारण कर लेता है और माला भी जपने लगता है । ऐसा करता है दूसरोंके सामने ही , जहाँ उनसे बड़ाई मिलती है और यदि इनके विरोध करनेपर लोग भला समझेंगे । तो वह इन्हींका विरोध भी करने लगेगा । इसका प्रत्येक कार्य दम्भ और छल - कपटसे भरा होगा ।

६ . मैं न करूंगा तो सब चौपट हो जायगा                                          

यह भी मनुष्यके अभिमान का ही एक रूप है । वह समझता है कि बस , ' अमुक कार्य तो मेरे किये ही होता है । मैं छोड़ दूंगा तो नष्ट हो जायगा । मेरे मरनेके बाद तो चलेगा ही नहीं । ' ऐसे विचार दूसरों के प्रति हीनता प्रकट करते हैं ।उनके मनमें द्रोह उत्पन्न करनेवाले होते हैं । संसारमें एक - से - एक बढ़कर प्रतिभाशाली पुरुष पैदा हुए हैं - होते हैं । तुम अपनेको बड़ा मानते हो , पर कौन जानता है कि तुमसे कहीं अधिक प्रभाव तथा गुण सम्पन्न संसारमें कितने हैं , जिनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो । किसी पूर्वजन्मके पुण्यसे अथवा भगवत्कृपासे किसी कार्यमें कुछ सफलता मिल जाती है तो मनुष्य समझ बैठता है कि ' यह सफलता मेरे ही पुरुषार्थसे मिली है , मेरे ही द्वारा इसकी रक्षा होगी । मैं न रहूँगा तो पता नहीं , क्या अनर्थ हो जायगा । ' यों समझकर अभिमानसे नाच उठता है और जहाँ मनुष्यने अभिमानके नशमं नाचना आरम्भ किया कि चक्कर खाकर गिरा !

७ . अपनेको तो आरामसे रहना है - 

यह इन्द्रिया रामविलासी पुरुषोंका उद्गार है । पैसा पासमें चाहे न हो , चाहे यथेष्ट आय न हो , चाहे कर्जका बोझ सिरपर सवार हो , पर रहना है आरामसे । आजकल चला है , उच्चस्तरका जीवन ( High standard of living ) । इसका अर्थ है स्वाद - शौकीनी , विलासिता , फिजूलखर्ची और झूठी शानकी गुलामी । सादा धोती - कुर्ता पहनिये तो निम्नस्तर है – कोट - पतलून उच्चस्तर है ! जूते उतारकर हाथ - पैर धोकर फर्शपर बैठकर हाथसे खाइये तो निम्नस्तर है टेबुलपर कपड़ा बिछाकर बिना हाथ - मुँह धोये , जूते पहने , कुर्सीपर बैठकर सबकी जूठन खाना उच्चस्तर है ! कुएँपर या नदीमें नदीकी मिट्टी मलकर नहाना और सादे कपड़े पहनना निम्नस्तर है – पाखानेमें नंगे होकर टबमें बैठकर साबुन - क्रीम आदि लगाकर झरते हुए नलसे नहाना उच्चस्तर है ! अपनी हैसियतके अनुसार साधारण साग सब्जीके साथ दाल - रोटी खाना निम्नस्तर है और किसी प्रकारसे प्राप्त करके चाय - बिस्कुट खाना , अण्डे खाना , शराब पीना और कबाब उड़ाना उच्चस्तर है ! घरमें कथा कीर्तन करना निम्नस्तर है और सिनेमा देखना उच्चस्तर है ! सीधे - सादे व्यापार - व्यवहारसे थोड़ी जीविका उपार्जन करना निम्नस्तर है और ऊपरी चमक - दमक तथा छलभरे व्यवहारसे दूसरोंको ठगकर अधिक पैसे कमाना उच्चस्तर है ! थोड़े खर्चसे घरका - ब्याह - शादीका काम चलाना निम्नस्तर है और बहुत अधिक खर्च करके आडम्बर करना उच्चस्तर है ! ऐसे उच्चस्तरमें सबसे अधिक आवश्यकता होती है — प्रमादकी और धनकी । सो प्रमादमें तो कोई कमी रहती नहीं , पर धनको अभाव रहता है । धनाभावकी पूर्तिके लिये चोरी , ठगबाजी , डकैती , घूसखोरी और बेईमानीके रास्ते पकड़ने पड़ते हैं ।
भगवान्ने गीता ( १६ । १२ ) - में कहा है
 ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्
 अर्थात् आसुरी प्रकृतिके ' विषय - भोगोंकी प्राप्तिके लिये अन्यायसे अर्थ - संग्रहका प्रयत्न करते हैं । हमारे यहाँ उच्चस्तरके जीवनका अर्थ था सादगी , सदाचार , त्याग तपस्या , पवित्र आचरण , आदर्श चरित्र , साधुभाव और भगवद्भक्ति । इसके स्थानपर आज झूठ , कपट , छल , विलासिता , उच्छृखलता , दुराचार , यथेच्छाचार , अनाचार और भोगमय जीवनको उच्चस्तरका जीवन माना जाता है । तमसाच्छन्न विपरीत बुद्धिका यही परिणाम है । इस प्रकार प्रमाद और पापमें लगे रहनेवाले मनुष्योंकी सच्ची उन्नति कैसे हो सकती है ? ' | इसी प्रकार और भी बहुत - से दोष हैं , जो आदत या स्वभावसे बने हुए हैं । इन सब दोषोंसे सावधान होकर इनका तुरंत त्याग कर देना चाहिये । लौकिक उन्नति चाहनेवाले और मोक्षकी इच्छावाले – दोनोंके ही लिये ये दोष घातक हैं ।