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एकान्त चिन्तन


एकान्त में विराजिये और चिन्तन कीजिये —यह देह कक्षमें है । यह कक्ष , मन्दिरमें है । यह मन्दिर , गलीमें है  यह गली ,मुहल्लेमें है। यह मुहल्ला ,गाँवमें है। यह गाँव ,तहसील में है। यह तहसील , जिलेमें है । यह जिला डिवीजन में है । यह डिवीजन ,प्रदेशमें है । यह प्रदेश ,राष्ट्रमें है । यह राष्ट्र ,द्वीप  में है । यह द्वीप ,पृथ्वीमें है । यह पृथ्वी ,जलमें है। यह जल , अग्निमें है। यह अग्नि , वायुमें है। यह वायु , आकाशमें है। यह आकाश ,मनमें है। यह मन , बुद्धिमें है । यह बुद्धि , अहंकारमें है। यह अहंकार , जीवमें है। यह जीव ,आत्मामें है और यह आत्मा , परमात्मा में है ।

देहसे लगाकर पृथ्वीतक सब मिट्टी है और वह कल्पनासे ही कमरा ,घर ,गली ,मुहल्ला ,गाँव ,तहसील ,जिला , डिवीजन , प्रदेश , राष्ट्र , द्वीप या पृथ्वी कहलाती है। वस्तुतः यह मिट्टी अखण्ड है - कहीं अलग -अलग नहीं। उसमेंसे गन्ध निकल गयी कि वह जल हो गया। जलमेंसे रस निकल गया कि वह अग्नि हो गया। अग्निमेंसे रूप निकल गया कि वह वायु हो गया। वायुमेंसे स्पर्श निकल गया कि वह आकाश हो गया। आकाशमें से शब्द निकल गया कि वह मन हो गया। मनमेंसे कल्पना निकल गयी कि वह बुद्धि हो गयी। बुद्धिमेंसे निश्चय निकल गया कि वह अहंकार बन गया अहंकारमेंसे गुण निकल गये कि वह जीव बन गया। जीवमेंसे भिन्न भाव निकला कि वह आत्मा हुआ और आत्मामें सर्वभाव आया कि वह परमात्मा ही है

गन्ध है इसीलिये रोम ,त्वचा  नाड़ी , मांस और अस्थिरूप पृथ्वी है ,जिसमें जल ,अग्नि ,वायु और आकाशके विषयोंका भी भाग है। गन्धका ग्रहण घ्राणेन्द्रियसे होता है और विसर्जन गुदेन्द्रियसे। रस है इसीलिये लार , स्वेद ,मूत्र ,शुक्र और शोणितरूप जल है। जिसमें पृथ्वी , अग्नि , वायु और आकाशके विषयोंका भी भाग है। रसका ग्रहण जिह्वासे होता है और विसर्जन मूत्रेन्द्रियसे। रूप है इसीलिये निद्रा , तृषा , क्षुधा , कानि और आलस्यरूप अग्नि है ,जिसमें पृथ्वी , जल , वायु और आकाशके विषयोंका भाग भी है। रूपका ग्रहण चक्ष इन्द्रियसे होता है और देखकर पैरोंसे चला जाता है। स्पर्श है इसीलिये प्रसारण ,धावन ,बलन ,चलन और आकुंचनरूप वायु है ,जिसमें पृथ्वी ,जल ,अग्नि और आकाशके विषयोंका भी भाग है। स्पर्शका ग्रहण हाथोंसे स्पर्शेन्द्रियद्वारा होता है। शब्द है इसीलिये काम ,क्रोध ,शोक ,मोह और भयरूप आकाश है ,जिसमें पृथ्वी ,जल , अग्नि और वायुके विषयोंका भी भाग है। शब्दका ग्रहण कर्णेन्द्रियद्वारा होता है और विसर्जन वाणीसे। इसी प्रकार मन ,बुद्धि ,अहंकार ,जीव ,आत्मा और परमात्माके विषयमें भावोंका विश्लेषण और संश्लेषण कर लेना चाहिये।

व्यान -नामक प्राणद्वारा नाभिस्थान से परा वाणीका स्फुरण होता है। समान - नामक प्राणद्वारा हृदयस्थानसे पश्यन्ती वाणीकी ध्वनि होती है। उदान - नामक प्राणद्वारा कण्ठस्थानसे मध्यमा वाणीका निनाद होता है। इसी प्रकार अन्य प्राणोंके जरिये जिह्वस्थानसे वैखरी वाणीका उच्चारण होता है इन सबसे अपने मन , बुद्धि , अहंकार ,जीव और आत्माका सम्बन्ध हटाकर परमात्मामें जोड़ना ही साधनाकी सिद्धि है।

परमात्मा अन्दर और बाहर सर्वत्र समानरूपसे सर्वदा सम्पूर्ण है। सब वही है। सबमें वही है उसी में सब है। उसीसे सब है और वह स्वयं सब ओरसे सब है । धर्मरूप मूल वही है । अर्थरूप शाखा - प्रशाखा भी वही है। कामरूप पत्र - पुष्प भी वही है। मोक्षरूप फल भी वही है और प्रभु - प्रेमरूप रस भी वही है । जिस प्रकार पृथ्वीमें अनन्त बीज हैं , जलमें अनन्त बिन्दु हैं ,अग्निमें अनन्त स्फुलिंग हैं ,वायुमें अनन्त झोंके हैं ,आकाशमें अनन्त शब्द हैं ,मनमें अनन्त वृत्तियाँ हैं ,बुद्धिमें अनन्त निश्चय हैं ,अहंकारमें अनन्त गुण हैं ,जीवमें अनन्त चैतन्य हैं ,आत्मामें अनन्त ज्ञान हैं ;उसी प्रकार परमात्मामें अनन्त आनन्द हैं।

तनिक प्रयोग करो - सिरपर दाँत लगाओ और दाँतों में बाल उगाओ - कितना भद्दा ?


विश्वास करो ,प्रभुने जहाँ ,जैसी ,जिस विधिसे ,जब - जब जो भी विधान किया है ,वह सब आनन्दके लिये ही है । उत्कृष्ट भक्ति यही है कि हम उसके विधानके विरुद्ध कभी कुछ भी कामना न करें।

वह दिन धन्य होगा ,जब हम ऐसी भक्तिमें स्थिर होकर प्रभुके अनन्त प्रेमको प्राप्त करेंगे। प्रभुका प्रेम तो सर्वत्र व्यापक है ,पर हमने जबतक उसे प्राप्त नहीं किया ,तबतक आनन्दके स्वप्न भी नहीं आ सकते। धन्य हैं वे , जिन्होंने प्रभुको अपना बना लिया।

धन्य हैं वे ,जिनको प्रभुने अपना बना लिया। सबसे अधिक धन्य हैं वे ,जो स्वयं प्रभुरूप होकर भी प्रभुके प्रेमके लिये सर्वदा लालायित हैं ,वे ही दु : ख और मुखक्री अनन्त लीलाओंमें भाग लेकर भी सबसे अलग हैं।

भारतीय दर्शन - शास्त्र आपसमें वाद - विवाद तो करते हैं ,पर जैसे समद्रकी अनन्त लहरे आपसमें टकराती हैं तो मानो परस्पर गले मिलनेके लिये ,उसी प्रकार न्याय ,वैशेषिक ,सांख्य - योग ,पूर्वमीमांसा - उत्तरमीमांसा ,जैन - बौद्ध और चार्वाक - आस्तिक आपसमें झगड़तेहैं। तो परस्पर मिलनेके लिये - मिटनेके लिये और उस अनन्तकोटि - ब्रह्माण्डनायक सच्चिदानन्दघन पूर्णतम पुरुषोत्तम अद्वन्द्व द्वन्द्वदेह द्वन्द्ववृन्द - निकन्दन नन्दनन्दनको अपने सहस्र - सहस्र फणोंपर विराजमान करके नचानेके लिये और अन्तमें उसकी शरण ग्रहण करके वृन्दावनवासियोंको सुखी करनेके लिये यमुना नदीसे भाग जाते हैं।

आत्यन्तिक दु : ख - निवृत्ति और परम सुख प्राप्तिका यही रहस्य है।