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श्रद्धा विश्वास और प्रेम


जो कुछ भी ईश्वरका विधान है , उसमें हित ही  भरा है । कहीं भी अहित दिखता है तो यह अपनी समझकी कमी है । अणु - अणूमें सब समय , सब देश और सब वस्तुमें अपना हित ही देखे , यह देखना ही सर्वत्र उसकी दयाको देखना है । विश्वासपूर्वक मान ले , बस , फिर काम समाप्त उसके आनन्दका ठिकाना ही नहीं है । प्रत्यक्ष शान्ति और आनन्द है । इन बातोंक पढ़ने - सुनने मात्रसे ही महान् शान्ति और आनन्द प्राप्त होते हैं तो फिर बार - बार मनन करनेसे बड़ी भारी शान्ति और आनन्दका अनुभव क्यों नहीं होगा ? |

 ईश्वरकी दया सर्वत्र है । सर्वत्र उसके प्रेमकी छटा छा रही है । फिर हम क्यों भय करें ? वह प्रेमका महान् समुद्र है , उसमें हम डूबे हुए हैं  प्रेम  जलसे भीगे हुए हैं - मग्न हो रहे हैं । यह भाव जब दृढ़ हो जायगा , तब शान्ति और आनन्दकी बाढ़ प्रत्यक्ष दिखने लगेगी । फिर प्रेम आनन्दके रूपमें परिणत हो जायगा ,वही परमात्माका स्वरूप है । परमात्मा आनन्दमय है । परमात्मा प्रेममय है । वह प्रेम ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देता है । इस समय वह प्रेम अदृश्य हैं । जब प्रेम हो जाता है , तब भगवान् प्रत्यक्ष मूर्तिमान् होकर प्रकट हो जाते हैं । भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णका स्वरूप प्रेमका ही पुंज है । प्रेमके सिवा दूसरी वस्तु नहीं है । प्रेम ही आनन्द है और आनन्द ही प्रेम है । एक ही वस्तु है । भगवान् सगुण साकारकी उपासना करनेवालोंके लिये प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिये आनन्दमय ।

संसारमें भी यह बात है कि जिससे जितना प्रेम बढ़ेगा , उससे उतना ही अधिक आनन्द होगा । यहीं बात इस विषयमें है । वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही भक्तोंके प्रेमानन्द हैं और वे ही पूर्णब्रह्म परमात्मा मूर्तिमान् होकर प्रकट होता है।

तुलसीदासजी कहते हैं


हरि व्यापक सर्बत्र समाना ।प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना 


हरि सर्वत्र परिपूर्ण हैं । वे प्रेममय हैं । वे प्रेमसे ही प्रकट होते हैं ;क्योंकि वे स्वयं प्रेममय हैं । यदि कहो कि बात तो सही है , पर हमलोगों में प्रेम नहीं है तो यह तो आपकी ही मान्यता है न ?ऐसा कोई स्थान नहीं , जहाँ प्रेम न हो ।प्रेमियोंका प्रेम और ज्ञानियोंका आनन्द सर्वत्र है । वेदान्तमें अस्ति , भाति , प्रिय कहा है ।समझना चाहिये - प्रिय क्या वस्तु है ?प्रिय और प्रेममें कोई अन्तर नहीं है । संसारमें कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है , जिसमें आनन्द व्याप्त न हो । प्रेम उसका स्वरूप है । वह सर्वत्र है ।

भगवान् वाल्मीकि मुनिसे रहनेका स्थान पूछा । तब उन्होंने कहा -भगवन् !बताइये , आप कहाँ नहीं हैं ?वह प्रेममय परमात्मा बाहर - भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है ।

हममें प्रेम नहीं है ,भजन -साधनकी कमीके कारण हमें भगवान् नहीं मिलते  यह हमारी मान्यता नीतिके अनुसार ठीक है । ऐसा मानकर हम  भगवान् का  भजन करें , सत्संग करें तो आगे जाकर हमारा कल्याण हो सकता है । नीति तो यही है , किंतु इसीसे विलम्ब हो रहा है । एक बात इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है । हम कानून माननेवाले हैं , इसलिये भगवान्ने यह कानून बना दिया ।पर हम यह मान लें कि कानूनकी बात तो वही है अपनी दृष्टिसे तो वही बात है , पर प्रभु असम्भवको भी सम्भव करनेवाले हैं वे अपने दासोंके दोषोंकी ओर देखते ही नहीं । वे बिना ही कारण दासोंपर दया और प्रेम करते हैं ।उनका स्वभाव ही ऐसा है । उनके स्वभावपर यदि हम दृढ़ विश्वास कर लें तो फिर हम इस बातकी प्रतीक्षा करें कि एक क्षणका भी विलम्ब क्यों हो रहा है ?हम इस बातपर अड़ जायँ कि एक क्षणका विलम्ब क्यों होना चाहिये ?बस , फिर विलम्ब हो नहीं सकता ।

हमारा प्रेम , हमारी करनी तो विलम्ब ही करनेवाले हैं , किंतु इस अपनी मान्यताको छोड़कर प्रभुकी ओर ध्यान दें तो फिर विलम्ब नहीं होना चाहिये । हमारी धारणा बलवती होनी चाहिये ।' प्रभो !आप तो परम दयालु हैं , आप तो दासोंके दोषोंको देखते ही नहीं । आपकी दया तो प्रत्यक्ष है । आप परम प्रेमी हैं - आपका प्रेम तो बिना हेतु ही होता है । प्रभो !मैं जब ऐसा मानता था कि प्रभु न्यायकारी हैं , जब हम भजन करेंगे तो वे दर्शन देंगे , उस समयतक तो विलम्ब होना ठीक ही था , किंतु प्रभो !अब तो मैं यह मानता हूँ कि आप परम दयालु हैं , आपका दया करना ही एकमात्र स्वभाव है । मेरा दृढ़ विश्वास है कि आप अब एक क्षण भी विलम्ब नहीं करेंगे ।' ऐसा दृढ़ विश्वास रखें तो फिर उस कानूनसे जो विलम्ब हो रहा है , वह नहीं हो ।|

यह एक असम्भव - सी बात लगती है कि एक क्षणमें हमारा कल्याण हो जायगा । लोगोंकी यह धारणा हो रही है कि भगवान् न्यायकारी हैं  जब हम पात्र होंगे , तब वे दर्शन देंगे । यह बात युक्तिसंगत होते हुए भी भगवान्पर लागू नहीं हो सकती । भगवान् के  लिये कुछ भी असम्भव नहीं है । असम्भव बात भी सम्भव हो सकती है , प्रभु ऐसे ही प्रभावशाली हैं , प्रभुका प्रभाव ही ऐसा है । वहाँ सारा असम्भव भी सम्भव है । यह बात हम समझ लें तो उसी समय कल्याण हो जाय । दया और प्रेम प्रभुके गुण हैं । असम्भवको भी सम्भव कर देना उनका प्रभाव है ।प्रभुके गुणोंमें या प्रभावमें  किसी एकमें भी विश्वास हो जाय तो फिर बस , आप कैसे भी हों , आपको एक - एक मिनट प्रभुका विलम्ब सहन नहीं हो सकेगा । आप प्रतिक्षण व्याकुल होकर प्रतीक्षा करेंगे और प्रभु उसी क्षण प्रकट हो जायँगे । बस , केवल उनकी दयापर निर्भर होना चाहिये ।फिर हम - सरीखोंकी तो बात क्या , हमसे भी गये - बीते लोगोंको एक क्षणमें दर्शन हो सकते हैं। हमें दर्शन होनेमें विलम्ब इसीलिये हो रहा है कि हम विश्वास नहीं करते ।

प्रश्न - यह निश्चय कैसे हो ?


उत्तर – भगवान् और भक्तों की दयासे यह निश्चय करानेके लिये ही ये सब बातें कही जाती हैं । जब हम यह मान लें कि भगवान् ही इस प्रकारकी श्रद्धा कराते हैं और इस तरहकी श्रद्धा करानेका वातावरण भी भगवान् ही उपस्थित करते हैं और उनकी अहैतुकी कृपासे ही यह सब सम्भव है तो फिर हम यह क्यों शंका करें कि प्रभु कृपा नहीं करते ? प्रभु तो कृपा कर ही रहे हैं । तुम जो यह कह रहे हो कि प्रभु कृपा क्यों नहीं करते , यही तो विलम्बका कारण है ।

ये जो भगवद्विषयकी बातें हैं  ये ही रहस्यकी बातें हैं । मनुष्य यदि प्रभुके गुण और प्रभावका रहस्य समझ जाय तो उसे धारण ही कर ले । समझकी बात है । समझ लेनेपर काम शेष नहीं रहता । संसारके जितने भी पदार्थ हैं , वे विष हैं ।'  यह बात समझ लेनेवाला फिर इनका सेवन नहीं कर सकता । जब यह पता लग जाय कि लड्डुओंमें विष है तो भला कौन उन्हें खायेगा । खाता है तो समझना चाहिये कि वह समझा ही नहीं ।किसी दरिद्रको पारस मिल जाय और फिर भी वह दरिद्र ही |रहे तो समझना चाहिये कि उसने पारस को जाना ही

भगवान् के  प्रेम और दयाका तत्त्व समझना चाहिये । उनकी दया , प्रेम और प्रभाव अपार हैं । उनका तत्त्व नहीं जानते , तभी हम लाभ नहीं उठाते । भगवान् का  प्रभाव भगवान्के लिये थोड़े ही है , वह तो हमलोगोंके लाभ उठानेके लिये ही है ।ऐसा प्रभावशालीका प्रभाव संसारके उद्धारके लिये ही है ।हृदयसे जो उनका ऐसा प्रभाव मानता है , वही लाभ उठा लेता है ।

जगत में  एक दयावान् पुरुष है – उसके पास धन है । उसके धनसे वही लाभ उठाता है , जो उसे पैसेवाला और दयालु मानता है । पैसेवाला मानकर भी यदि दयालु नहीं मानता तो लाभ नहीं उठा सकता और दयालु मानकर भी यदि उसे धनी नहीं मानता , तब भी लाभसे वंचित ही रहता है । प्रत्यक्ष बात है इसी प्रकार महात्मासे लाभ वही उठा सकता है , जो उसे महात्मा समझता है ।दूसरे भी उठाते हैं , पर थोड़ा । समझनेवाला तो पूरा और तुरंत लाभ उठा लेता है । दयालु धनीको जो दयालु नहीं मानता , वह भी लाभ तो उठा सकता है , किंतु थोड़ा । इसी प्रकार  भगवान् को  दयालु न माननेवाले भी लाभ तो उठाते ही हैं । सामान्य भावसे सभी लाभ उठाते हैं , किंतु जो उन्हें दयालु और प्रभावशाली मानता है , वह विशेष लाभ उठा सकता है । अग्निसे सामान्य गर्मी सभीको मिलती है , किंतु जो जानता है कि यहाँ अग्नि पड़ी है , वह अधिक लाभ उठा लेता है ।

पारस घरमें पड़ा है , वह लोहेसे छुआ गया - लोहा सोना हो गया । हमने समझा कि काकतालीयन्यायसे हो गया हमें पता नहीं कि कैसे हुआ तो थोड़ा लाभ है । और जान जायँ तो पूरा लाभ उठा सकते हैं

इसी प्रकार संत - महात्माओं की दया , प्रेम , प्रभाव अपार हैं । भगवान् का अवतार हुआ । अब हम पश्चात्ताप करते हैं कि उस समय हम भी तो किसी - न - किसी योनिमें थे ही - हमने लाभ नहीं उठाया ।अब यदि  भगवान् का अवतार हो तो हम भी लाभ उठायें , किंतु समझनेकी बात है । भगवान् तो भक्तोंके लिये प्रेमसे बाध्य होकर अवतार लेते हैं ।भगवान् का  प्रकट होना तो भक्तोंके अधीन है ।

यदि हम ऐसा विश्वास कर लें तो जो लाभ हमें अवतारसे हो सकता है , वह हम उन भक्तोंसे ही उठा सकते हैं । भगवान् की तो यह समझ है कि मेरे भक्त मुझसे भी श्रेष्ठ हैं ;क्योंकि मैं तो कानूनमें बँधा हुआ हूँ । मैं ही कानूनको बनानेवाला हूँ , इसलिये मैं कानून तोड़ना नहीं चाहता । पर भक्त इतने बलवान् होते हैं कि उनके वशमें होकर तो मुझे कहीं कानूनको भी लाँघना पड़ता है । इसलिये भक्त मुझसे श्रेष्ठ हैं ;किंतु भक्तोंकी मान्यता यह नहीं है ।वे तो यही समझते हैं कि भगवान् ही सर्वोत्तम हैं । उनसे बढ़कर कोई नहीं । भक्त जब भगवान्को सर्वोत्तम मानता है , तब भगवान् भी भक्तको सर्वोत्तम मानते हैं । भगवान् सत्यसंकल्प हैं  ।उनका मानना सत्य ही है । अत : किसे छोटा कहें किसे बड़ा ।

हमलोगोंको तो यही मानना चाहिये कि यह उनकी प्रेमकी लड़ाई है - अपने लिये तो दोनों ही बड़े हैं , हमारी दरिद्रताको मिटानेके लिये तो दोनों ही असंख्यपति हैं । भगवान् के भक्त सभी समयमें मिलते हैं ,यह ठीक है।किंतु करोड़ों में कोई एक बिरला ही महात्मा होता है । भगवान् कहते हैं 

मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥( गीता ७ । ३ )

हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझे तत्त्वसे जानता है ।' पर भक्त है । तो सही न ।नहींकी बात तो नहीं कहते । वे सदा ही रहते हैं ।  भगवान् के  भक्त न हों तो फिर  भगवान् की  भक्तिका प्रचार ही कौन करे । भगवान् स्वयं अपनी भक्तिका प्रचार नहीं करते । उनके सहायक रहते हैं । अपनी भक्तिका तो कोई भी अच्छा मनुष्य प्रचार नहीं करता , फिर भगवान् तो पुरुषोत्तम हैं । यदि संसारमें भक्त न होते तो  भगवान् की  भक्तिका नाम संसारमें शायद ही रहता , इसीलिये भगवान् । भक्तोंके ऋणी होते हैं। आजतक हनुमान्जीके ऋणसे न भगवान् मुक्त हुए और न भरतजी । पर हनुमानजी कभी ऐसा नहीं मानते ।

जो काम भगवान् नहीं करते ,उसे भी भक्त कर देते हैं । इस न्याय से  भगवान् से  भी बढ़कर भगवान्  के  भक्त हैं।