जब किसी वस्तुकी प्राप्ति की इच्छा होती है और वह वस्तु अत्यन्त आवश्यक होती है , तब उसके न मिलनेपर दुःख होता है - यह स्वाभाविक है । परंतु यदि वह वस्तु अनावश्यक है , तब मिली या नहीं मिली कोई बात नहीं । यदि मिल गयी तब कौतूहल होता है और नहीं मिली तो कोई हर्ज नहीं ,दुख नहीं होता है ,परंतु जो वस्तु आवश्यक है ,जो जीवनमें जरूरी है जिसके बिना काम नहीं चलता , जिसमें मनको अत्यन्त प्रीति है , ऐसी वस्तुके न मिलनेपर दुख होता है ।
एक सज्जन ने पूछा कि साधन करते - करते इतने दिन व्यतीत हो गये , परंतु न तो भगवान का प्रेम प्राप्त हुआ और न भगवान् प्राप्त हुए , इसका क्या कारण है ? इसका कारण तो भगवान् जानते हैं , अपने तो जानते नहीं फिर क्या बतायें । लेकिन मैंने उनसे पूछा कि भगवान के न मिलनेपर क्या आपको दुःख है ? और प्रेम न मिलनेपर आपके चित्तमें अत्यन्त बेचैनी है क्या ? वे बोले कभी - कभी होती है । मैंने कहा कि यदि होती है तो बड़ा अच्छा , लेकिन आपने कोई व्यापार किया होता यह सोचकर कि इसमें इतना लाभ होगा और उस व्यापारमें लाभकी जगह घाटा हो जाता तब उस स्थितिमें जैसी बेचैनी होती , वैसी तो नहीं है । वे सच्चे व्यक्ति हैं । उन्होंने ठोक - ठोक बता दिया । जब संसारकी वस्तुओंके न मिलनेपर जैसी बेचैनी होती है वैसी बेचैनी भगवान के न मिलनेपर नहीं होती है , तब यह मानना चाहिये कि भगवान की प्राप्तिकी जैसी चाह होनी चाहिये वैसी चाह हमारे अन्दर पैदा नहीं हुई है । उन सज्जनने फिर कहा कि , आप एक बड़ी सीधी बात बताते हैं कि भगवान का मिलना सुलभ है , परंतु मुझे तो इतना साधन करनेपर भी नहीं मिले । मैंने उनसे कहा - भैया ! भगवान का मिलना सुलभ इसलिये बताते हैं कि भगवान् कर्मक फल नहीं हैं । भगवान् चाहके फल हैं । संसारके जितने भी भोग - पदार्थ , अवस्था , स्थितियाँ और प्राणी हैं , ये सबके सब कर्मसे मिलते हैं । वैसा कर्म पहले बना हुआ होता । है - तभी उनका वैसा फल मिलता है ।
संसार की प्रत्येक स्थिति , अवस्थाकी प्राप्तिमें कर्म अपेक्षित है ।वह चाहसे - इच्छासे नहीं मिलती हैं । धनको चाह , मानकी चाह और अधिकारकी चाह कौन नहीं करता । है , परंतु सबको नहीं मिलता है । इनके लिये लोग अनन्य चाह करते हैं , रोते हैं , रात - दिन रोते हैं , परंतु निराशा ही मिलती है । कठोर परिश्रम करनेपर भी , चाह करनेपर भी धन नहीं मिलता है , परंतु भगवान् चाह करनेपर मिल जाते हैं । इसलिये भगवान का मिलना सहज हुआ या नहीं ?वे बोले - इस दृष्टिसे सहज है ।फिर मैंने पूछा - आपने धनकी जितनी चाह की , उतनी चाह भगवान के लिये भी की , क्या आप ऐसा मानते हैं ? उन्होंने कहा उतनी चाह नहीं की । मैंने उनसे कहा - जब आपको भगवान से मिलनेकी चाह ही नहीं है तब भगवान को आपसे मिलनेकी क्या परवाह है ?आप सरीखे लाखों भक्त हैं ।
भगवान् अपनी चाह करनेवालेको मिलते हैं - यह सत्य है । वे यह नहीं देखते कि चाह करनेवाला कौन है ?यह उनकी दया है । वे यह नहीं देखते हैं कि ब्राह्मण है या चाण्डाल है । वे नहीं देखते हैं कि यह पुरुष है कि स्त्री हैं , विद्वान् हैं या मूर्ख है । वे यह भी नहीं देखते हैं कि उसके अबतकके जीवनके इतिहासमें पाप है या पुण्य है , परंतु चाह तो देखते ही हैं । चाह है और नहीं मिले इसका अर्थ है कि चाहमें कमी है । चाह है कि नहीं इसकी कसौटी है ‘
तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति '
इच्छित वस्तुके न मिलनेपर भयानक दुःख होता है । इसी प्रकार भगवत्प्रेमीको भगवान का स्मरण नहीं भूलता है ।क्यों नहीं भूलता है ?इसलिये नहीं भूलता है कि भूलते ही व्याकुलता आ जाती है ।जिस वस्तुके मिलनेपर अत्यन्त हर्ष होता है , उसके न मिलनेपर व्याकुलता होती है ।जिसकी आवश्यकता होती है उसके न मिलनेपर व्याकुलता - बेचैनी होना स्वाभाविक है ।जो चाहते हैं वैसा न होनेपर बेचैनी होती है , जैसे कहीं जानेके लिये तैयार होकर स्टेशनपर जायें और देखते - देखते गाड़ी छूट जाय तब बड़ा दु : ख होता है , यह कसौटी है ।
यदि आप भगवत्प्रेम चाहते हैं , भगवान का भजन चाहते हैं , भगवान का मिलन चाहते हैं , तब इसके लिये छटपटाहट , व्याकुलता आपके मन में होती होगी । अगर नहीं होती है तब चाहते ही नहीं है , यह सीधी बात है ।आप चाहते हैं ' – इसकी परीक्षा यही है कि आप व्याकुल हैं । अथवा नहीं । अगर व्याकुल नहीं होते हैं तो इसका अर्थ साफ - साफ है कि आप चाहते नहीं है ।
अतएव भगवान से मिलनेकी चाह पैदा करनी चाहिये । क्योंकि भगवान का मिलना किसी साधनाका फल नहीं है । भगवान को प्राप्त करनेकी अनन्य उत्कट चाह जिसके मनमें पैदा हो जाय , उसके लिये विधियोंकी आवश्यकता नहीं है । कहा जाता है कि इतना लाख जप करने पर भगवान् मिल । जायेंगे ।यह ठीक है , शास्त्रीय बात है लेकिन उतने लाखको आवश्यकता नहीं है । भगवान् संख्यासे नहीं मिलते । भगवान् क्रियासे नहीं मिलते । भगवान के लिये कोई बँधा नियम नहीं है कि इतने मोलमें मिल जायँगे । वे तो चाहसे मिलते हैं । जिसकी जैसी चाह हो , जो भगवान के लिये जितना अधिक व्याकुल होता है , भगवान् भी उसके लिये उतने ही व्याकुल होते हैं जो भगवान से शीघ्र मिलना चाहते हैं , भगवान् भी उससे उतना ही शीघ्र मिलना चाहते हैं । इसलिये ऐसी अवस्थामें हमें एक ही बात देखनी है कि हमारी चाह वास्तविक है या नहीं और इस चाहमें वृद्धि करनी है ।
अद्त वेदान्तमें भी यही बात है । वहाँ पर भी मुमुक्षाकी आवश्यकता है । जबतक तीव्र मुमुक्षत्व जाग्रत् नहीं होता है , तबतक मोक्ष नहीं मिलता है । शङ्कराचार्यजी ने ‘ सर्ववेदान्तसारसंग्रह ' नामक अपने ग्रन्थमें मुमुक्षी के भेद किये हैं - मन्द , मध्य , तीव्र , तीव्रतर और फिर तीव्रतम । आगे जाकर फिर इनके भी तीन - तीन भेद हैं । लोग चाहते हैं कि मोक्ष मिल जाय । यह अच्छी बात है , परंतु मोक्षके लिये त्याग आवश्यक हैं और इस त्यागके लिये तैयार नहीं हैं । यह मन्द मुमुक्षा है । तीव्र मुमुक्षा वह है , जिसमें मोक्ष चाहिये और कुछ भी नहीं चाहिये ।
इसी प्रकार भगवान के प्रेमकी चाह , भगवान्के मिलनकी चाह जब तीव्रतर - से - तीव्रतम और अनन्य होती । है , जहाँ दूसरी चाह ही न रहे और यह चाह अत्यन्त तीखी - से - तीखी हो जाय , बस , भगवान के प्राप्तिको यही शुभ वेला है । वहीं देश , काल , पात्रके भेदभावकी कोई आवश्यकता नहीं है । वह पात्र कौन है , वह देश कौन सा है वह काल कौन - सा है , इनका विचार नहीं रहता । देश , काल और पात्र - ये जगतुकी वस्तुओंके लिये आवश्यक होते हैं । भगवान् सार्वदेशिक हैं , सार्वकालिक हैं । और सबके हैं । भगवान् कहाँ , कब , किसको नहीं मिल सकते ।भगवान् सबको मिल सकते हैं , जो चाहे उसको मिल सकते हैं । भगवान को चाह यह अत्यन्त आवश्यक चीज़ है । केवल इसे ही साधकको पैदा करना है । जितने भी जप - तप होते हैं , वे सब इसी बातके लिये होते हैं , चाहे ।हम उनका नाम कुछ भी रखें । सबका ध्येय यही है कि भगवान्को प्राप्त करनेकी एकान्त चाह हृदय में उत्पन्न हो जाय । निष्काम भक्तिका अर्थ क्या है ?कुछ भी न चाहो और भगवानसे प्रेम कर लो । भगवान की सेवाका कार्य करो ।
जाहि न हि चाहिअकबहुँ कछ तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।।
|भगवान के अपने रहने का घर – अपना घर कौन - सी है ?थोड़े दिनोंके लिये आकर बस जायें या किरायेपर ले ले अथवा माँग लें कि कुछ दिनोंके लिये मेहमान बना लो , ऐसा घर नहीं ‘ सो राउर निज गेहु ।' ऋषि कहते हैं कि एक घर मैं ऐसा बताता हैं , जो आपके लायक तो नहीं है , परंतु आपका ही है , उसमें आकर आप निरन्तर निवास करें ।उन्होंने जो अन्य स्थान बताये हैं , उनमें निरन्तर नहीं कहा ।' बसहु निरंतर अपने घरमें बसनेमें सङ्कोच कैसा , भय कैसा ?अपना घर अपना ही है । जाहिं न चाहिअ कयहुँ कछु और तुम्ह सन सहज सनेहु ’ यह बड़ी सुन्दर बात हदयमें रखनेकी है ।यदि यह आधा दोहा जीवनमें उतर जाय तो भगवान् आपके हो जायेंगे ।यह पक्की बात है , गारण्टी है ।‘ जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ' जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिये ।कभी और कुछ भी ये दो बातें हैं ।फिर प्रेम क्यों करता है ?इसलिये कि प्रेम किये बिना रहा नहीं जाता ।सहज प्रेम है ।किसी हेतुको लेकर , किसी कामनाको लेकर , किसी गुणको देखकर , किसी रूप सौन्दर्यको देखकर अथवा किसी महत्त्वको देखकर नहीं अपितु जिसका सहज स्नेह है । हे राघवेन्द्र !जिसका तुमसे सहज स्नेह है और जिसको तुमसे कभी कुछ भी नहीं चाहिये , उसका मन आपके रहनेका अपना घर है । आप उसमें सदाके लिये बस जाइये ।क्या विलक्षण भाव है ।
दूसरी सारी इच्छाओंका सर्वथा विनाश करके मनुष्य जब एकमात्र इच्छासे केवल भगवान को चाहता है तब पूर्वक किसी कर्मकी , किसी भावकी आवश्यकता नहीं होतो , भगवान् स्वयं मिल जाते हैं ।फिर इससे भी आगेकी एक और बात प्रेमी की होती है , वह यह कि भगवान के मिलनको नहीं चाहता है । यह बडी विलक्षण बात है । जो मिलन भजनको रोक दे , वह मिलन प्रेमीके लिये वाञ्छनीय नहीं हैं , जो मिलन भजनमें बाधक हो जाय वह मिलन भक्तको वाञ्छनीय नहीं है ।भक्त भगवान के मिलनकी अपेक्षा भगवान्के भजनको अधिक प्रिय समझता है ।वे मानते हैं कि भगवान् मिल जायें और मैं उनका भजन छोड़ दें - ऐसा मिलन मुझे नहीं चाहिये ।इसका परिणाम होता है कि भगवान् स्वयं चाहते हैं कि मैं मिलें । बुला लेते हैं , स्वयं उसके पास चले जाते हैं , सब तरहसे ।
व्रजको दो प्रकारको भक्त गोपियोंका वर्णन है ।एक वे जो केवल - और - केवल भगवान को चाहती हैं और दूसरी जो भगवान के साथ - साथ जगत को भी चाहती हैं जैसे ब्राह्मण - पत्नियाँ । इनका बड़ा सुन्दर इतिहास है । वे ऋषि पत्नियाँ घरोंमें रहतीं । उनके यहाँ यज्ञादि होता , नित्य यज्ञ एवं भगवान्का पूजन होता , अग्निहोत्र होता , तमाम वैदिक आचरण घरमें होते रहते और वे बहुत प्रसन्न रहतीं , परंतु इनके मनमें एक वासना थी ।इन्होंने श्रीकृष्णके सम्बन्धमें यह सुन रखा था कि वे साक्षात् भगवान् हैं । ये उनसे मिलना चाहती थीं , उनका दर्शन करना चाहती थीं , परंतु इन ऋषियोंके घरमें दिन - रात वैदिक कर्मकाण्ड होता रहता था , जिसमें पार्श्वभागिनी चाहिये और यज्ञकी तैयारीसे इन्हें अवकाश ही नहीं मिलता था । इससे इनका चित्त व्याकुल रहता था । उनको ऐसा अवसर ही नहीं मिला कि कभी श्रीकृष्णके दर्शन हो जायें । ये ब्राह्मणदेवियाँ अपने मनोंमें निरन्तर दर्शनकी कामना किया करतीं । उधर यज्ञ हो रहे हैं । और इधर इनके मन भगवान्की ओर आकर्षित हो रहे हैं ।यही विचार करतीं कि कैसे भगवान्से मिलन हो जाय । उन्होंने सोचा कि श्रीकृष्ण जंगलमें तो आते होंगे । कभी जब भोजनका समय होता है तब हमारे यहाँ आ जाते तो उस समय उनको भोजन करा देतीं । लेकिन तुरंत ही उन्हें अपने पतियोंका डर भी लगता कि वे ग्वाले सब बे - पढे लिखे अहीरोंके लड़के हैं , वे यदि यज्ञमें आ जायें और हमारे पण्डितजी लोग कह दें कि नहीं जिमायेंगे तब तो बहुत बुरा होगा । वे डर जातीं । ऐसा ही होता है कि बात पहले मनमें आती है फिर क्रियामें आती है ।
एक दिन मङ्गलमय प्रभातमें भगवान् अपने सखाओंके साथ अरण्यमें गये । भगवान की लीलासे उस दिन घरोंसे छाक आनेमें विलम्ब हो गया । कभी - कभी छाक वे स्वयं साथ लाते और कभी बादमें घरोंसे आता था । उस दिन साथ नहीं लाये । थे । इनका कार्यक्रम सब पहलेसे बना - बनाया होता है ।
‘ निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् '
सारी फिल्म पहलेसे बनी रहती है ; यह तो केवल यवनिका उठाते हैं । उस दिन खाद्य - सामग्री साथ लाये नहीं और देर होने लगी तो सखाओंने कहा - ‘ कन्हैया ! भूख लगी है । ' कन्हैया बोले - ‘ क्यों नहीं घरसे लाये ? ' अब मैं क्या करूं ? सखाओंने कहा - ' तुमने ही तो कहा था कि आज छाक मत ले चलो , इसलिये हम नहीं लाये । ' इसपर कन्हैयाने कहा अच्छा , एक कार्य करो । थोड़ी ही दूरपर ऋषि - मुनि , वेदज्ञ । ब्राह्मण यज्ञ कर रहे हैं और यज्ञ भगवान्के लिये प्रसाद बना है । अच्छा - अच्छा पक्वान्न बना है । तुमलोग जाओ और उन द्विजों - भूदेवों - पृथ्वीके देवताओंसे कह दो कि श्रीकृष्ण सखाओंके साथ जंगलमें आये हैं , उन्हें बड़ी भूख लगी है , कुछ खानेको दो । सखाओंने कहा - वे दे देंगे । कन्हैया ने कहा - ' जाओ , माँगो । देखो , जबभूख लगी है तब जरा चेष्टा करनी चाहिये । ' उन्हें भूख लगी ही थी , इसलिये बेचारे गये । वहाँ यज्ञमें आहुति दी जा रही थी । यज्ञ - धूमसे आकाशमण्डल आच्छादित था । बड़ा सुन्दर दृश्य था । ये जाकर वहं खड़े हो गये । एक पण्डितजी द्वारा वहाँ आनेका प्रयोजन पूछनेपर बोले - हमारे कन्हैयाको बड़ी भूख लगी है , कुछ खानेको चाहिये । उन्होंने कहा - कौन कन्हैया ? तब , सखाओंने कहा - हमारे श्यामसुन्दर । पण्डितजीने उन्हें डाँटकर भगा दिया । वे बेचारे डरके कारण भागआये और आकर कन्हैयासे बोले - कन्हैया ! खानेको तो कुछ नहीं मिला । हाँ , फटकार जरूर मिली । फिर कन्हैयाने कहा - ऐसा करो कि जहाँ यज्ञ हो रहा है वहाँ न जाकरके घरके पीछेसे जाओ और ब्राह्मणियोंसे कहो कि ' माता !श्रीकृष्णको भूख लगी है ।कुछ खानेको चाहिये ।' ये सखा वहाँ डरते - डरते गये तब ब्राह्मणियोंने आनेका कारण पूछा ।इन्होंने बताया कि हमारे कन्हैयाको भूख लगी है और हम सब भी भूखे हैं ।कुछ खानेको चाहिये ।वे बोलीं - सच्ची बात है !इन्होंने कहा हाँ ।ब्राह्मणियोंने कहा – फिर चलो ।सैकड़ों देवियोंने उन पक्वान्नोंसे थाल भरा और चल दीं । एक ब्राह्मणीको ब्राह्मणदेवताने नहीं जाने दिया । उस ब्राह्मणीको भगवानके वियोगमें इतनी छटपटाहट हुई कि उसके प्राण निकल गये ।वह पहले ही वहाँपर जा पहुँची । जब वे थाल लेकर भगवान्के पास पहुँचीं तो उन्होंने कहा
स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम् ।
यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः ।
भगवान ने कहा - ' महाभाग्यवती देवियो !तुम्हारा स्वागत है ।आओ , बैठो । कहो , हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ?तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो , यह तुम्हारे - जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है ।
भगवान ने उनका लाया हुआ नैवेद्य सखाओंसहित ग्रहण किया , फिर कहा तुम लोग क्यों आयी ?अब लौट जाओ । उन्होंने कहा - हमारे घरवाले नाराज होंगे भगवान ने आश्वासन दिया कि नाराज नहीं होंगे ।फिर वे लौट गयीं ।उन्होंने भगवान को प्राप्त करनेकी जो आकांक्षा की तो भगवान ने उन्हें अपने पास बुला लिया ।उन्हें ब्रह्म - सांनिध्य मिल गया , भगवत्साक्षात्कार हो गया ।भगवान के श्रीमुखसे बात कर ली । उनका दिया हुआ नैवेद्य भगवान ने स्वीकार कर लिया । उनको बड़े सुन्दर शब्दोंसे अपना लिया । भगवान की अपनायी हुई इन देवियों में महान् दिव्य तेज उद्भाषित हो गया । उनके मुखमण्डल और उनके अन्दरसे दिव्य आभा प्रस्फुटित होने लगी । वे जब ब्राह्मणोंके पास पहुँची तब ब्राह्मणों को यथार्थ ज्ञान हुआ कि जीवन तो धन्य इन्हीं का है । ये धन्य हो गयीं । हमारा यज्ञ तो कुछ भी नहीं है
धिग् जन्म नस्त्रिवृद् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।
धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे
ब्राह्मणोंने पश्चात्ताप किया कि कहाँ हम भगवान से विमुख हैं और ये भगवान के सन्मुख हो आयीं । हमारे जन्म को धिक्कार है , हमारे द्विजत्वको धिक्कार , हमारे व्रतको धिक्कार , हमारे ज्ञान को धिक्कार , हमारे कुल और हमारी यज्ञ - क्रिया को धिक्कार है , जो हम भगवान से विमुख रहे ।
