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रत्नकार से महर्षि वाल्मीकि बनने की कथा



पुराणों के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का जन्म नागा प्रजाति में हुआ था। ऋषि मुनि बनने से पूर्व वे एक डाकू थे जिन्हें रत्नाकर नाम से जाना जाता था। 

मनुस्मृति के अनुसार वे प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। उनके बारे में एक और कथा  है कि बाल्यावस्था में ही उनको एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया था और बड़े ही प्रेम से उनका लालन-पालन किया। उक्त भीलनी के जीवनयापन का मुख्य साधन दस्यु कर्म का था। जिसे वाल्मीकि ने अपने भरण-पोषण के दौरान अपना लिया था।  

जब वाल्मीकि एक तरूण युवा हो गए तब उनका विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया। विवाह बाद वे कई संतानों के पिता बने और उन्हीं के भरण-पोषण के लिए उन्होंने पाप कर्म को ही अपना जीवन मानकर और भी अधिक घोर पाप करने लगे।

 एक बार उन्होंने वन से गुजर रहे नारद की मंडली को ही हत्या की धमकी दे दी। नारद  के पूछने पर उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे यह सब अपने पत्नी और बच्चों के लिए कर रहे है। तब नारद ने उन्हें समझया की  जो भी पाप कर्म तुम कर रहे हो, उसका दंड केवल तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। तब नारद  ने उन्हें कहा कि तुम जाकर अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि क्या वे तुम्हारे इस पाप के भागीदार बनेंगे। इस बात पर जब उनकी पत्नी और बच्चों ने अपनी असहमती प्रदान की और कहा कि हम आपके इस पाप कर्म में भागीदार नहीं बनेंगे। तब वाल्मीकि को अपने द्वार किए गए पाप कर्म पर बहुत पछतावा हुआ और उन्होंने नारद  मंडली को मुक्त कर दिया। 

नारद  मंडली से क्षमा मांग कर जब वाल्मीकि लौटने लगे तब नारद  ने उन्हें तमसा नदी के तट पर 'राम-राम' नाम जप ही अपने पाप कर्म से मुक्ति का यही मार्ग बताया। लेकिन भूलवश वाल्मीकि राम-राम की जगह 'मरा-मरा' का जप करते हुए तपस्या में लीन हो गए।

 कई वर्षों तक कठोर तप के बाद उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली जिस कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ा। कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा रामायण की रचना करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा जी की कृपा से इन्हें समय से पूर्व ही रामायण की सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया तथा उन्होंने रामायण की रचना की। कालान्तर में वे महान ऋषि बने।

आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये।

 अपने डाकू के जीवन के दौरान एक बार उन्होंने देखा कि एक बहेलिए ने सारस पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी जोर-जोर से ‍विलाप कर रही है। उसका मादक विलाप सुन कर वाल्मीकि के मन में करुणा जाग उठी और वे अत्यंत दुखी हो उठे। उस दुखभरे समय के दौरान उनके मुंह से अचानक ही एक श्र्लोक निकल गया- 

'मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। 
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।


' अर्थात्- अरे बहेलिए, तूने काम मोहित होकर मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है, अब तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी। 

इस श्र्लोक के साथ ही वाल्मीकि को एक अलग ही ज्ञान प्राप्ति का अनुभव हुआ तथा उन्होंने 'रामायण' जैसे प्रसिद्ध महाकाव्य की रचना कर दी। जिसे आम भाषा में 'वाल्मीकि रामायण' भी कहा जाता है। इसीलिए वाल्मीकि को प्राचीन भारतीय महर्षि माना जाता हैं। 

ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जो हमें प्रभु श्रीराम के जीवन काल का परिचय करवाता है। जो उनके सत्यनिष्ठ, पिता प्रेम और उनका कर्तव्य पालन और अपने माता तथा भाई-बंधुओं के प्रति प्रेम-वात्सल्य से रूबरू करवा कर सत्य और न्याय धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। 

ऐसे महान संत और आदिकवि का जन्म दिवस आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।

महर्षि वाल्मीकि  के 10 अनमोल वचन (10 Sayings Of Maharishi Valmiki)


जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है |

प्रण को तोड़ने से पुण्य नष्ट हो जाते हैँ |

माया के दो भेद है अविद्या और विद्या |

दुखी लोग कौन सा पाप नहीँ करते |

असत्य के समान पातकपुंज नहीँ है समस्त सत्यकर्मो का आधार सत्य ही है |

प्रियजनो से भी मोहवश अत्यधिक प्रेम करने से यश चला जाता है |

अति संघर्ष से चंदन मेँ भी आग प्रकट हो जाती है उसी प्रकार बहुत अवज्ञा किए जाने पर ज्ञानी के भी हृदय मेँ क्रोध उपज जाता है |

संत दूसरोँ को दुख से बचाने के लिए कष्ट रहते हैँ दुष्ट लोग दूसरोँ को दुख मेँ डालने के लिए |

नीचे कि नमृता अत्यंत दुख दाई है अंकुश, धनुष ,साप और बिल्ली झुककर वार करते हैँ |

उत्साह से बढ़कर दूसरा कोई बल नहीँ है |