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प्रेम क्या है

मनुष्य की अनेक भावनाओं में प्रेम सर्वश्रेष्ठ भावना है ।प्रेम ही समूची सृष्टि का मूल कारण है।उस समय,जब सृष्टि का निर्माण नहीं हुआ था , ब्रह्मांड में केवल ब्रह्मा ही था,इक क्षण ऐसा भी आया,जब ब्रह्मा को स्वयं से ही प्रेम हो गया और ब्रह्मा जी ने सोचा.

 "एकोहं बहुस्याम"

मैं एक हू,अनेक हो जाओ।बस फिर क्या था देर थी
। समूची सृष्टि का निर्माण हो गया।सृष्टि का निर्माण हो जाने के बाद निर्माण की प्रक्रिया चालू रखने के लिए ब्रह्मा ने प्रकृति और परमेश्वर अर्थात स्त्री और पुरूष,मनु और शतरूपा का जन्म हुआ ,और उन दोनों के मन में प्रेम का भाव उत्पन्न कर दिया।यही प्रेम आगे जाकर सृष्टि का बीज बन गया। प्रेम संसार की सबसे बड़ी शक्ति है, उसका प्रचंड और उददाम वेग न किसी नीति का अनुगमन करता है, ना किसी नियम और लीक का मोहताज होता है।प्रेम में जहां आत्म बलिदान होता है, वहीं ईर्ष्या भी होती है। प्रेम मनुष्य की सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति है। प्रेम मनुष्य के तन, मन और उसकी आत्मा की संजीवनी है। प्रेम का आरंभ स्त्री और पुरुष के सहज आकर्षण से होता है और उसके बाद उसे विभिन्न सांचौ में डाला जा सकता है,जैसे परिवार का प्रेम,देश का प्रेम,धन का प्रेम, यज्ञ का प्रेम, विद्या का प्रेम और ईश्वर का प्रेम। प्रेम मनुष्य की सनातन प्यास, और प्रेरणा है। मनुष्य इस जगत में आते ही प्रेम को खोज शुरू कर देता है। भले ही वह मां की ममता में हो, भाई बहन के स्नेह में हो, अथवा आदर्शों की कल्पना में हो।प्रेम की कोई भी सीमा नहीं होती। प्रेम की कोई पराकाष्ठा नहीं होती। कबीरदास जी ने लिखा है !

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
 राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

अर्थ: प्रेम न तो किसी खेत अथवा क्यारी में उगता है और न ही यह किसी बाज़ार में बिकता है, यह तो वो खजाना है जो यदि किसी के मन को भा गया तो भले ही वह व्यक्ति राजा हो या कोई प्रजा, वो अपने प्राणों के मोल पर भी इसे प्राप्त करने के लिए तत्पर रहता है ।