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भगवान से बड़ा कौन व कैसे ???

 

संत तुलसीदासजी कहते हैं :


राम सिंधु घन सज्जन धीरा ।
चंदन तरु हरि संत समीरा ।।

 ‘श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत-पुरुष मेघ हैं । श्रीहरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं ।’


 भगवान श्रीकृष्ण भी दुर्वासाजी से कहते हैं :


अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ।।

‘मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ । मुझमें तनिक भी स्वतंत्रता नहीं है । मेरे सीधे-सादे, सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे ।’(श्रीमद्भागवत : 9.4.63)

भगवान संतों को बड़ा बताते हैं। भगवान ने कहीं भी अपने को संत से बड़ा बतलाया हो ऐसा देखने में नहीं आया। इस दृष्टि से संत ही बड़े हुए और यदि हम अपने लाभ के लिए विचार करते हैं तो भी संत ही बड़े हैं क्योंकि परमात्मा के सच्चिदानंद रूप में जीवमात्र के हृदय में रहते हुए भी संतकृपा और सत्संग के बिना जीव भगवान के उस परम आनंदमय स्वरूप के अनुभव से वंचित रहकर दुःखी ही रहते हैं। भगवत्स्वरूप का अनुभव भगवद्भक्ति से होता है और वह मिलती है संतकृपा तथा सत्संग से।


भगति तात अनुपम सुखमूला ।मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ।।
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ।।


अतः हमारे लिए तो संत ही बड़े हुए। भगवत्कृपा से प्राप्त हुई मानव-देह का फल मनुष्य के कर्म एवं साधन के अनुसार स्वर्ग, नरक अथवा मोक्ष - सभी हो सकता है किंतु संतों की कृपा से प्राप्त हुए सत्संग का फल केवल परम पद ही होता है। भगवान तो दुष्टों का उद्धार करते हैं उनका विनाश करके, पर संत दुष्टों का उद्धार करते हैं उनकी वृत्तियों का सुधार करके। भगवान अपने बनाये हुए कानून में बँधे हुए हैं परंतु संतों में दया आ जाती है। इस प्रकार भी संत भगवान से बड़े हैं। भगवान सब जगह मिल सकते हैं पर आत्मज्ञानी संत कहीं-कहीं ही हैं। अतः वे भगवान से भी दुर्लभ हैं।

 हरि दुरलभ नहिं जगत में, हरिजन दुरलभ होय ।
हरि हेर्याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ।। 

हमारा उद्धार करने में तो संत ही बड़े हुए। अतः हमें उन्हींको बड़ा मानना चाहिए। तात्त्विक दृष्टि से देखें तो संत और भगवान दोनों एक ही हैं। संतों का सेवन किस प्रकार किया जाय ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि संतों के सेवन का सर्वोत्तम ढंग है उनके मन, उनकी आज्ञा के अनुसार चलना, उनके सिद्धांतों का आदरपूर्वक पालन करना। यह संत-सेवन की ऊँची-से-ऊँची विधि है। इसका कारण यह है कि संतों को अपना सिद्धांत जितना प्यारा होता है उतने उनको अपने प्राण भी प्यारे नहीं होते, जो हम लोगों को सबसे अधिक प्यारे हैं।

उनके सिद्धांत का सांगोपांग (अंगों-उप अंगों सहित) पालन करना, उनके मन के अनुसार चलना और यदि मन का पता न लगे तो इशारे, आज्ञा आदि  के  अनुसार चलना चाहिए । यह उनकी सबसे बड़ी सेवा है - ‘अग्या सम न सुसाहिब सेवा ।’ अतः शरीर से सेवा करने के साथ ही श्रद्धा-प्रेमपूर्वक मन से भी सेवा की जाय तो कहना ही क्या है ! उनका सिद्धांत, भगवद्-अनुभव जानने के लिए उनका संग करके उनसे भगवत्संबंधी बात पूछनी चाहिए। इससे हम अधिक लाभ उठा सकते हैं। संतों से पुत्र, स्त्री, धन, मान, बड़ाई आदि से संबंध रखनेवाले सांसारिक पदार्थ चाहना अमूल्य हीरे को पत्थर से फोड़ना है; यह संतों के संग का सदुपयोग नहीं है। वे जो कुछ निर्देश करें उसे उनकी आज्ञा समझकर पालन करें। आज्ञापालन का स्थान सेवा में सबसे ऊँचा माना गया है। 

एक संत थे। उनके पास रहनेवाले श्रद्धालु व्यक्तियों में से एक व्यक्ति की एक दिन संत ने परीक्षा लेनी चाही। वे बोले : ‘‘मेरी कमर में दर्द हो रहा है, जरा अपने पैरों से  इसे दबा दो।’’ श्रद्धालु ने कहा : ‘‘महाराज ! आपके शरीर पर पैर कैसे रखूँ ?’’ संत ने उत्तर दिया : ‘‘ठीक है, मेरे शरीर पर तो तुम पैर नहीं रखते पर मेरी जबान पर तो पैर रख ही दिया न ?’’ हाँ, यह सम्भव है कि हम संत के वचनों का पूरा पालन न कर सकें। किंतु यदि मन में वचन-पालन की नीयत है तथा उसके लिए यथा-सामर्थ्य प्रयत्न भी किया गया है तो फिर चाहे उसका अक्षरशः पालन न भी हो पाया हो तो भी उससे बहुत बड़ा लाभ होता है। 

सत्संग के लिए तो संत स्वयं अपनी ओर से चले जाते हैं क्योंकि प्रेमी-जिज्ञासुओं के पास जाने से भगवद्वाक्यों का मनन, विचार और अनुशीलन (सतत व गहरा अभ्यास) होता है, जो उन्हें अत्यंत प्यारे हैं। इतना ही नहीं, वे अपना संग करनेवाले व्यक्ति का उपकार भी मानते हैं कि इसके कारण हमारा कुछ समय भगवच्चर्चा में व्यतीत हुआ। काकभुशुंडिजी ने गरुड़जी से कहा : ‘‘महाराज ! मुझ पर आपकी बड़ी कृपा हुई जो मुझे सत्संग-भगवच्चर्चा का मौका दिया।’’

संत को प्रायः हम समझते नहीं। हम लोग तो उनकी बाहरी क्रियाओं की चमत्कारिक बातों की विशेषता देखना चाहते हैं। अपनी बुद्धि से संतों की पहचान करना बड़ा कठिन है। उनकी पहचान तो उन्हींकी एवं भगवान की कृपा से ही सम्भव है। कसौटी से पहचान करने पर तो हम ही चक्कर खा जाते हैं क्योंकि संतों की कसौटी करना ही गलत है। तो फिर संतों की पहचान कैसे हो ? जिनके संग से हमारा साधन बढ़े, हममें दैवी सम्पत्ति आये, हम आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हों, हमारे आचरण में न्याय व उदारता आने लगे, भगवद्-तत्त्व का ज्ञान होने लगे, सत्शास्त्र, भगवान, महापुरुष और धर्म में श्रद्धा बढ़े और भगवान में प्रीति हो व भगवद्-स्मृति अधिक रहने लगे, हमारे लिए वे ही संत हैं। उनसे इस प्रकार का आध्यात्मिक लाभ लेना ही सच्चा लाभ है। 

संतों का संग किया जाय तो वह कभी निष्फल नहीं जाता। पर उनका महत्त्व समझकर उनके सिद्धांतानुसार आचरण करते हुए उनका संग करना उनका वास्तविक संग करना है। इस प्रकार करने से ही उनके संग का वास्तविक लाभ शीघ्र प्रकट होता है।