संसारमें हम सभी लोग जीते हैं और जीवित रहना चाहते हैं ,पर हम सभी जीवित रहना चाहते हैं। अपने सुखके लिये,अपनी इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये ,अपने आरामके लिये,अपनी कीर्ति के लिये,अपने यशके लिये,अपने मानके लिये,अपनी सद्गतिके लिये इसीका नाम स्वार्थ है। और इसी संसारमें वह मनुष्य अच्छा माना जाता है हम उसे साधु मानते हैं ,सत्पुरुष मानते हैं जो अपने ही सुखकी चाहका हिस्सा दूसरोंके सुखकी चाहमें दे देता है। जीवित रहता है दूसरोंको सुखी बनानेके लिये ,दूसरोंको आराम देनेके लिये ,दूसरोंको तृप्त करनेके लिये, दूसरोंके अभावोंको मिटानेके लिए,दूसरे किसी प्रकारसे भी दुख ,संकटको न प्राप्त हों इसलिये जितना -जितना वह त्याग करता है ,उतना -उतना हम उसे अच्छा मानते हैं और जो इतना त्याग कर दे ,जिसका जीवन केवल परार्थ हो जाय ,दूसरेका सुख ही जिसका सुख बन जाय और दूसरेका स्वार्थ ही जिसका स्वार्थ बन जाय माने जो पर को स्व बना ले। सच्ची बात तो ये है कि यहाँ कोई पर है नहीं। सारे -के -सारे जितने भी प्राणी हैं ,वे सब -के - सब आत्मस्वरूप हैं या सब के -सब भगवत्स्वरूप हैं परंतु मोहवश ये बात समझमें नहीं आती। सन्तोंने कहा कि मनमें गौरव मानकर अपनेको परोपकारी मानकर परोपकार करो। यद्यपि परोपकारी मानना अपनेको उचित नहीं है,ठीक नहीं है,पर किसी प्रकारसे भी दूसरेके उपकारमें,दूसरेके सुखमें,दूसरेके लाभमें अपना लाभ मानना सीखो। जितना -जितना मनुष्य उस मार्गमें आगे बढ़ता है,उतना -उतना उसे अपने सुखका,अपने संचित स्वार्थका त्याग करना पड़ता है। जितना जितना उसका त्याग बढ़ता है ,उतना उतना ही जगत्में सुख बढ़ता है और उसे शान्ति मिलती है ।‘ त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् '। हम सब शान्ति चाहते हैं ,पर शान्ति चाहते हैं अपनी इन्द्रियोंको तृप्त करके। ये शान्ति मिलने की नहीं 'न कामकामी'- भगवान ने गीतामें कहा कि भोगोंकी कामना लगी रहेगी। उसके स्वार्थका नित्य नया रूप बनता रहेगा ,सामने आता रहेगा और जितनी ही उसके कामनाकी पूर्ति होगी ,उतना ही कामनाका विस्तार होगा। यह नियम है
‘ बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय -भोग बहु घी तें।'
जैसे आगमें घी और ईंधन डालते जाओ,आग बुझती नहीं,भड़कती है इसी प्रकार कामनाकी पूर्तिसे कामनाकी आग बुझती नहीं है। जितना -जितना हम कामनाको पूर्ण करनेका प्रयत्न करेंगे। उतनी -उतनी हमारी कामनाका विस्तार होगा और जितना -जितना कामनाको विस्तार होगा ,उतनी अशान्ति और उतना ही दुख बढ़ेगा। ये एक बिलकुल सिद्धान्त है ,इसे चाहे कोई पहले स्वीकार न करे ,पर सत्य सत्य रहता है। स्वीकार करना पड़ता है जब भोग सामने आता है। तो इसलिये ये कहा कि भई 'पर 'को 'स्व 'बनाओ। जिसको दूसरा मानते हो ,उसको अपना मानो। जिसको दूसरेका स्वार्थ मानते हो उसको अपना स्वार्थ मानो और जैसे अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये ,अपने स्वार्थकी पूर्तिके लिये ,अपनी कामनाको पूर्ण करनेके लिये इस चाहसे ,उल्लाससे ,प्रयत्नसे भीतरके मनसे काम करते हो ,उसी प्रकार उसके स्वार्थकी सिद्धिके लिये काम करो। ये परार्थ - जीवन है,ये साधु जीवन है,ये सेवाका जीवन है,इसको अपनी भाषामें कहें तो ये याज्ञिकका जीवन है,यज्ञ करनेवालेका जीवन है। भगवान ने कहा - भई ! कामकरो,काम करने में गफलत न हो और न काम को छोड़ो,परंतु काम ऐसा करो जिसमें बँधो नहीं। तो काम करे और बँधे नहीं —ऐसा कौन - सा काम ? तो भगवान ने कहा
यज्ञार्थोत्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ।।( गीता ३ । ९ )
यज्ञकी भावनासे अतिरिक्त जितने भी काम हैं ,वे सब काम बाँधनेवाले हैं तो तुम कर्म करो पर करो यज्ञार्थ, तदर्थ -' यज्ञो वै विष्णुः '। भगवान् जो सर्वत्र प्राणीमात्रमें व्याप्त हैं ,उन सारे प्राणियोंको सुख पहुँचे ,सबका हित हो इस प्रकारके काम करो और काम करो ‘समाचर '-अच्छी तरहसे करो ,परंतु 'मुक्तसङ्गः आसक्तिको छोड़कर करो। तुम्हारी न आसक्ति रहे कर्ममें और न आसक्ति रहे कर्म फलमें। यज्ञके लिये ,भगवान की सेवाके लिये कर्म करो ,दूसरोंकी सेवा माने 'यज्ञ ',दूसरोंकी सेवा माने भगवान्की सेवा ,दूसरोंकी सेवा माने आत्मसेवा - अपनी सेवा – ये भाव - जगत्में जिस दिन होगा —आज हो चाहे युगों के बाद हो तभी जगत्में शान्ति होगी ,सुख होगा नहीं होगा तो नहीं। किसी व्यक्तिको या किसी वर्गको या किसी समुदायको दुख देकर दूसरेको हम सुख देना चाहेंगे ,किसीको लूटकर हम बड़ा बनना चाहेंगे ,द्वेषपूर्वक ,रागपूर्वक दूसरा मानते हुए ,पराया मानते हुए सुख पहुँचानेकी जो हम चेष्टा करेंगे तो ये परायेपनकी परम्परा चलती रहेगी। कभी कोई बलवान् होगा तो वह दुर्बलको लूटेगा ,कभी वह जो पहले दुर्बल था ,बलवान् होगा तो जो उस समय दुर्बल होगा ,उसको लूटेगा। तो ये तभी मिटेगा जब
‘ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ' ( गीता ६ । ३२ )
सुखमें और दुखमें अपनी आत्माकी उपमासे जब हम जगत्को देखेंगे ,दूसरे प्राणियोंको देखेंगे तब वास्तविक सच्चा स्वार्थ - साधन होगा। तभी सद्व्यवहार होगा। इसमें मूल बात एक ही है - अपने सुखका त्याग दूसरेके सुखके लिये। ये सन्तका ,साधुपुरुषका ,अच्छे पुरुषका ,सत्पुरुषका स्वभाव होता है तो ये श्रीगोपांगनाओंकी जो बात आती है न - वे इस त्यागमें सर्वोच्च हैं।
संसारका बड़े - से - बड़ा त्याग कर देनेवाले महापुरुष जिन लोगोंने सारे भोगोंका त्याग कर दिया ,जिन लोगोंने संसारके पदार्थों को छोड़ दिया ,उनके मनमें भी मुक्तिकी वासना बनी रहती है।मुमुक्षु जो होता है - अत्यन्त दृढ़ मुमुक्षु , तीव्र मुमुक्षा जिसके मनमें होती है।वह संसारके भोगोंका परित्याग कर देता है तुच्छ मानकर , बाधक मान करके। पर मुमुक्षा होती हैं। मुमुक्षा माने मोक्षकी इच्छा। एक बन्धनका कोई दुख है और वह अपनेको है तो अपने बन्धनका दुख निवृत्त हो जाय - इस इच्छाको लेकर वह संसारके भोगोंका त्याग करता है तो अहंकी चिन्ता ,अहंके मंगलकी कामना चाहे वह मंगल मोक्ष हो ,उसके मनमें भी रहती है यद्यपिबड़ी ऊँची कामना है पर गोपांगनाओंके प्रेममें और श्रीराधाके प्रेममें दो चीज नहीं है। यहाँ तो अहंकी सर्वथा विस्मृति है या अहंका सर्वथा समर्पण है। अपना सुख अपना दुख – यही प्रेमकी वास्तविक परिभाषा है‘ तत्सुखे सुखित्वम् 'उसके सुखसे सुख हो ,अपने सुखकी और कोई कल्पना ही नहीं।अपने प्रेमास्पदभगवान के सुखमें अपना सुख है,वह सुख चाहे अपने दुख में हो,वह सुख चाहे अपने नरकानलमें दग्ध होनेमें हो,वह सुख चाहे अपने अपमान, तिरस्कारमें हो और वह सुख चाहे अपनी दुर्गतिमें हो,वह सुख चाहे। अपने इन्द्रिय - सुखमें भी हो –ये सुख और दुख जो अपना है ये दोनों ही स्वीकार हैं यदि अपने भगवान को प्रेमास्पद भगवानको सुख होता हो तो ये जो त्यागकी पराकाष्ठा है ,उसमें जीवन रखनेकी भावनाइसीलिये और मरने की भावना भी इसीलिये है और मरनेसे सुख हो तो मृत्यु आज आ जाय बड़ौ सुन्दर और जीवनमें सुख तो हम कभी मरे नहीं और मरकर भी जी उठे।
एक बात उस दिन सुनायी थी कि नन्दबाबा श्रीकृष्ण और बलरामको मथुरामें छोड़ करके आ गये। जब ये कंसको कर देने गये और वहाँ श्रीकृष्ण ,बलराम साथ गये। धनुष -यज्ञ हुआ ,उसमें कंस मारा गया ,उसके बाद वसुदेव - देवकी छूट गये जेलसे। श्रीकृष्ण ,बलराम वहाँ रह गये ये वहाँपर सारी चीजें हुई। पीछेसे यशोदा बड़ी व्याकुल , यशोदामैया श्यामसुन्दरके बिना ,अपने नीलमणिके बिना रह न सकें। रात - दिन वे जागें ,रात - दिन खाना - पीना बन्द बड़ी आकुलता,बड़ी आतुरता। रास्ते जाय उससे पूछे - भई !तुम मथुरासे आये हो क्या ?मथुरा जाओगे क्या ?तो लोगों ने उस रास्तेसे निकलना बन्द कर दिया यशोदाके भयसे कि वे तंग करेंगी। तो वे पल - पलमें प्रतीक्षा करती थीं कि अब आते होंगे। अब आते होंगे । जरा -सी कोई आवाज सुनायी दे - मानो रथ आया है ।रथ एक दिन आया। यशोदा बाहर गयी। देखा ,अपने पति नन्दबाबाको देखा .अकेले रथमें बैठे हैं। नन्दबाबा उतरने लगे ,उससे पहले ही वे मूच्छित होकर गिर पड़ीं। अपने स्वामीको आया हुआ देखकर मूच्छित होकर गिर पड़ीं - इसका अर्थ उनका स्वामीके प्रति प्रेम नहीं सो बात नहीं है। श्रीकृष्ण बलरामके बिना नन्दबाबा लौट आये, इसलिये गिर पड़ीं। चेत कराया गया। जब होश हुआ तो सबसे पहले रोती। दर्द नटानीने यशोदामैयाने कहा स्वामिन !आप जीवित। क्यों आ गये ?ये पतिसे प्रश्न है आप जीवित क्यों आ गये ?कैसे आ गये? आपके प्राण रहे कैसे?मैंने सुना सुमन्त रामसीताको वनमें छोड़ आये और उस समाचारको सुनकर दशरथने प्राण त्याग कर दिये और आप स्वयं जाकर श्रीकृष्णको छोड़ आये। श्यामसुन्दरको वहाँपर और आपके प्राण लौट आये?
मेरे प्राण तो वहीं निकल गये होते जिस समय कन्हैयाने कहा - बाबा !मैं यही रह जाऊँ , तब मेरे प्राण छटपटाने लगे। मैं व्याकुल हो गया तो कन्हैया मेरी गोदमें आ बैठा और बोला -बाबा !तू जा और मैं थोड़े ही दिनों में जल्दी आऊँगा। अब मैं मरता कैसे ?मैं अगर वहाँ प्राण त्याग कर दें और कन्हैया कलको आये और मैं न मिलूं तो मेरा कन्हैया कितना रोयेगा ?यशोदा !इसलिये मेरे प्राण रह गये ,नहीं तो प्राण नहीं रहते। ये व्रजका बड़ा सुन्दर भाव अपने प्राणोंका रखना भी ,इसलिये कि प्रियतमको सुख हो। अपने प्राणोंका परित्याग भी इसलिये कि प्रियतमको सुख हो। न प्राणोंके रखनेमें मोह है ,न प्राणोंके जानेमें चिन्ता है। अगर प्राण जानेमें सुख हो तो तैयार हैं वह अपने प्राणोंको देकर अपने प्रियतमको सुखी बनानेके लिये उनका तो यही स्वभाव है। इस प्रेमका स्वभाव है अपने प्रियतम प्रेमास्पदको सुखी बनाते रहना ये जीवन है,ये जीवनका स्वभाव है,ये जीवनका स्वरूप है,न कोई तर्क है,न कोई बुद्धि -कौशल है,न कोई किसीसे विवाद है,न अपनेको ऊँचा सिद्ध करनेकी कोई चेष्टाहै,न अपनेको साधक मानना है,न भक्त मानना है न प्रेमी मानना है ये तो एक इस प्रकारकी बड़ी दिव्य सुन्दर आसक्ति है '
‘ सा परानुरक्तिरीश्वरे ।'
‘ तदर्पिताखिलाचारिता तस्विस्मरणे परम व्याकुलता ॥'
ये इस प्रकारकी प्राणोंकी एक स्वाभाविक स्थिति हो जाती है कि जब वह अपने प्राणधन ,प्राणजीवन प्राणाराम , प्राणप्राण श्रीश्यामसुन्दरके सुखमें ही अपने जीवनको अपने सुखको पर्यवसित कर देता है। बस ,श्यामसुन्दरका सुख मेरा सुख ,उनकी हँसी मेरे जीवनकी हँसी ,उनकी उदासी मेरे जीवनका सर्वथा विनाश। देख नहीं सकता, देखना चाहता नहीं ये इस प्रकारको स्थिति जब मनुष्यके जीवनमें आती है,तब समझना चाहिये कि ये प्रेमके मार्गपर आया।