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How to be happiness in life

संसारका एक नाम ‘ दुखालय ' भी है। गीता ( ८ । १५ ) - में भगवान् श्रीकृष्णने संसारको ‘ दुःखालयमशाश्वतम्  कहा है ,अर्थात् यह अनित्य जगत् दुखोंसे पूर्ण है। अतः स्पष्ट है कि इस संसारमें जो भी जन्म लेता है ,उसे दुखोंका सामना करना पड़ता है। उसे हमेशा ही दुखोंका भय सताता रहता है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य दुखी जीवनसे बचना चाहता है और जीवनभर सुख -शान्तिका जीवन जीनेके लिये ईश्वरसे कामना -प्रार्थना करता है। मनुष्य -जीवनमें सुख -दुखका आना -जाना एक स्वाभाविक क्रिया है। सुखके बाद दुख और दुखके बाद सुख क्रमशःजीवनमें आते रहते हैं। मनुष्य न तो पूरे जीवन सुखी ही रहता है और न दुखी। यही प्रकृतिका नियम है।

भगवान् श्रीकृष्णने गीता ( १२ । १७ ) -में कहा है। कि जो सभी प्रकारके सुख -दुखमें ,सफलता और असफलतामें सम रहता है ,वह मुझे प्रिय है 

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
 शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः

एक अन्य श्लोकमें भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको जय - पराजय , लाभ - हानि और सुख - दुखमें समान रहनेके लिये कहा है ‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ' गीता २ । ३८  उक्त दोनों श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके माध्यमसे संसारको ज्ञान दिया है कि मनुष्यको सभी प्रकारको सुखद और दुखद परिस्थितियों में समभावसे रहना चाहिये।

वाल्मीकिरामायणमें कहा गया है -' दुर्लभं हि सदा सुखम् ' अर्थात् सदा सुख मिले यह दुर्लभ है।

वेदव्यासजीने कहा है सुखके बाद दुख और दुखके बाद सुख आता है ,कोई भी न तो सदैव दुख पाता है और न निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है। महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है

 तुलसी इस संसार में , सुख दुःख दोनों होय।
ज्ञानी काटे ज्ञान से , मूरख काटे रोय 

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मनुष्य - जीवनमें सुख और दुख दोनों ही क्रमशःआते रहते हैं ,इसलिये आवश्यक है कि हम न तो सुखमें घमण्ड करें और न दुखमें दुखी रहें। सुख और दुखको मेहमान समझकर स्वागत करें। दुखमें विचलित न होकर धैर्यके साथ सामना करें। यह समझें कि दुख कुछ समय बाद नहीं रहेगा। जीवनमें सुखी रहनेके लिये निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिये।

( १ ) आस्तिक बनिये -आप ईश्वरके जिस रूपपर श्रद्धा करते हों ,उसकी प्रार्थना करें। अपनी चिन्ता - परेशानीको दूर करनेहेतु निवेदन करें।‘ ईश्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है ' इस सूत्रपर विश्वास करें। गीताका सार है - शरणागति। जो अनन्य भावसे भगवान्की शरण हो जाता है ,उसे भगवान् सम्पूर्ण पापों और दुखोंसे मुक्त कर देते हैं। गीता भगवान् श्रीकृष्णकी वाणी है भगवान् श्रीकृष्णने कहा है -‘मच्चित्तःसर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि '( गीता १८ । ५८ ) अर्थात् मुझमें चित्त लगा लो फिर मेरी कृपासे तुम सारी कठिनाइयों को पार कर जाओगे।' नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् ' भगवान्के नामोंका संकीर्तन और चरणों में प्रणाम सारे पापों एवं दुखोंको सदाके लिये नष्ट कर देता है। सदैव स्मरण रखें कि संसारके क्लेश - दुखोंसे पीड़ित हृदयकी शान्तिके लिये ईश्वरकी कृपाके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। ईश्वर हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करेंगे - ऐसा मनमें दृढ़ विश्वास होना चाहिये। श्रद्धापूर्वक की गयी प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती।अतएव जीवनमें सुख - शान्तिके लिये आस्तिक बनिये , ईश्वरपर भरोसा करिये । दिनका प्रारम्भ प्रार्थनासे करें और अन्त प्रार्थनासे करें। नीतिश्लोकके अनुसार –'‘ कोटिं त्यक्त्वा हरिं स्मरेत्  अर्थात् करोड़ काम छोड़कर भगवान्का स्मरण करना चाहिये।

( २ ) माता - पिताकी सेवा करें - माता - पिता प्रत्यक्ष देव हैं। उनकी सेवा ( तन - मन - धनसे ) करनी चाहिये और उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिये। माता - पिताकी उपेक्षाकर उनको दुख पहुँचाना अधर्म एवं अपराध है माता -पिताके आशीर्वाद से ही मनुष्यको जीवनमें सुख -शान्ति और सफलता प्राप्त हो सकती है। माता - पिताको सुख देना ही सुखी रहनेका सर्वोत्तम उपाय है।‘ सुख बाँटिये - सुख मिलेगा ' इस उक्तिका अपने जीवनमें अक्षरशः पालन करना चाहिये। श्रीरामचरितमानसकी शिक्षा है 

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी ।
जो पितु मातु बचन अनुरागी । 
अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥

स्मरण रखें


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥|( मनुस्मृति )

जो अपनेसे बड़ों ( माता - पिता - गुरुजन ) - को नित्य प्रणाम करता है ,उनकी सेवा करते हुए आशीर्वाद प्राप्त करता है ,उसके आयु ,विद्या ,यश तथा बल ये चारों बढ़ते हैं। पद्मपुराणमें बताया गया है कि इस लोक और परलोकके कल्याणके लिये माता - पिताके समान कोई तीर्थ नहीं है। धर्मग्रन्थों एवं सन्तोंके वचनोंका सार यही है कि माता - पिताकी तन - मन - धनसे सेवा करो और सदैव उनको प्रवण वो तभी जीवनमें सख - शान्ति प्राप्त करोगे।

( ३ ) सुख दो  सुख मिलेगा – संत तुलसीने कहा है कि सुख देनेपर सुख मिलेगा और दुख देनेपर दुख मिलेगा।

चार वेद षट् शास्त्र में बात मिली हैं दोय।
सुख दीन्हे सुख होत है दुःख दीन्हे दुःख होय ॥

दूसरोंको सुख पहुँचाना ,सुखी करना ही स्वयं सुखी रहनेका उपाय है।‘ जो दोगे वही तो मिलेगा और जैसा बोओगे वैसा काटोगे इन सूक्तियोंके अनुसार दूसरोंको प्रसन्नता ,सुख और प्रेम देनेपर ही जीवनमें प्रेम और सुखकी प्राप्ति होती है।

( ४ ) सदैव सन्तुष्ट रहें – गीतामें भगवान् श्रीकृष्णने कहा है -‘ सन्तुष्टः सततम् ' अर्थात् प्रत्येक परिस्थितिमें निरन्तर सन्तुष्ट रहें।‘ सन्तोषः परमं सुखम् ' संतोष ही परम सुख है। हमारे पास जो कुछ है ,उसीमें सन्तुष्ट रहें तभी सुख मिलेगा। दुनियामें बहुत से लोग हैं ,जिनके पास हमसे बहुत कम है। कहा गया है कि संतोष ही सबसे बड़ा सुख है और असंतोष ही सबसे बड़ा दुख है। जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान ' अर्थात् संतोष ही सबसे बड़ा धन और सुख है ।जिसे अपने परिश्रम और पुरुषार्थसे प्राप्त धनमें संतोष नहीं है ,वह हमेशा अशान्त रहता है और ' अशान्तस्य कुतः सुखम् ?' अर्थात् अशान्त व्यक्तिको सुख कहाँ ?इसलिये जीवनमें सुखी रहनेके लिये अपनी ईमानदारीकी कमाईमें संतुष्ट रहिये। 

( ५ ) धैर्य रखें - हितोपदेशमें कहा गया है ‘ विपदि धैर्यम् ' विपत्ति अर्थात् बुरा समय आनेपर धीरज रखें। धीरज ( धैर्य ) रखनेपर सभी प्रकारकी समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है। धैर्य रखने और सहनशील बननेसे मनुष्य कठिनसे कठिन परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारता। जीवनमें समस्याएँ तो आती रहती हैं और हमेशा रहेंगी। अगर हम समस्याओंसे डरकर तनावग्रस्त या दुखी रहते हैं तो हमारे जीवनकी शान्ति नष्ट हो जायगी।इसलिये बुरे समयको धैर्यपूर्वक सहन करे और अच्छे समयकी प्रतीक्षा करे।

( ६ ) ईमानदारीसे धन कमाओ और मितव्ययी बनो  – कहा गया है कि ' धन जीवनके लिये कमाओ .न कि जीवन धन एकत्र करने में गवा दो '। उक्त सूक्तिका तात्पर्य यही है कि मनुष्यको अपने परिवारके लिये (जीवनकी आवश्यकताओंको पूरा करनेहेतु ) धन कमाना आवश्यक है ,परंतु धन - संग्रहकी तृष्णामें अपनी एवं परिवारके सदस्योंकी सुख - शान्ति नष्ट न कर दो। धनकी तीन गतियों ( दान - भोग और नाश ) - में दान सर्वश्रेष्ठ गति है। जो व्यक्ति न स्वयं ही उपभोग करता है ,न दान देता है ,उसके धनकी तीसरी गति ‘ नाश होती है। महाभारतमें कहा गया है कि मनुष्य धनका दास है , परंतु धन किसीका दास नहीं।‘ न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ' ( कठोपनिषद् ) अर्थात् मनुष्यकी तृप्ति धनसे नहीं होती। मनुष्य अधिक धनके संग्रहमें अपना सुख और शान्ति नष्ट कर देता है अधिक धन संग्रहके लोभमें खोटे साधनों अर्थात् पापकी कमाई करनेसे भी नहीं चूकता और उसका परिणाम भी दुखदायी होता है। अतएव ध्यान रहे कि धनका उपार्जन करनेमें और उसका उपयोग करने में पवित्रता हो। धन मनुष्यके पास हमेशा एक समान नहीं रहता है। इसलिये धनको सदुपयोग करो। अधिक धन - संग्रहकी तृष्णामें अपनी शान्ति नष्ट न कर दो। अधिक धनको विष और मद भी कहा गया है। इस मदसे बचनेमें ही भलाई है - ‘ कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय अतएव मितव्ययी बनिये , आवश्यकताएँ कम करिये और अपनी आयके अनुसार ही खर्च करिये। आयसे अधिक खर्च करनेकी आदतसे मनुष्यकी सुख शान्ति नष्ट होती है। बुरे समयके लिये बचत अवश्य करें। जीवनके इस मूलमन्त्रको हमेशा ध्यानमें रखना और पालन करना ही श्रेष्ठ है।

( ७ ) स्वस्थ रहें – शारीरिक और मानसिक रूपसे स्वस्थ रहनेपर ही कोई मनुष्य अपने उत्तरदायित्वको पूरा करते हुए सुखी रह सकता है। शारीरिक और मानसिक रूपसे हमेशा सक्रिय रहिये। प्रात: -सायं भ्रमणका अभ्यास करिये। ऐसा करनेपर अनेक बीमारियों - मधुमेह , रक्तचाप , हृदयरोग , कब्ज आदिसे बचा जा सकता है। तात्पर्य यह कि प्रतिदिन शारीरिक परिश्रम होना आवश्यक है। प्रकृति - प्रेम , भ्रमण , संगीत , बागवानी , खेल , पठन , चित्रकारी आदिमें अपनी रुचिके अनुसार भाग लीजिये अपनेको व्यस्त रखिये। भोजनमें संयम रखें। घी - तेल , शकर , फास्ट फूडसे बचना भी आवश्यक है। इन पदार्थोकी अधिकता स्वास्थ्यके लिये घातक है इन बातों पर ध्यान देने और इनका पालन करनेपर आप स्वस्थ रह सकते हैं और स्वस्थ रहकर अपने जीवनको सुखमय बना सकते हैं। मानसिक रूपसे स्वस्थ रहनेके लिये क्रोध , चिन्ता , विषाद , तनाव , निराशा , अहंकार आदि दोषों से दूर रहें धार्मिक पुस्तकोंका अध्ययन करें। निरोग रहना पहला सुख माना गया है ‘ पहला सुख निरोगी काया। यदि आप धनवान् हैं , करोड़ोंकी सम्पत्तिके स्वामी हैं ,परंतु आप अनेक रोगोंसे ग्रसित हैं। तो आप सुखी नहीं हैं इसलिये सदैव स्वस्थ रहिये अपने स्वास्थ्यपर विशेष ध्यान दीजिये।

( ८ ) आशावादी बनो –  हमेशा आशावादी रहना चाहिये। उज्ज्वल भविष्य और अपने लक्ष्यमें सफलता प्राप्त होनेकी कामना करनी चाहिये। आशा जवानीकी प्रतीक है और निराशा बुढ़ापेकी निशानी है। आशावादी पुरुष बीमार होनेपर शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है। निराश रहनेसे कभी किसीका भला नहीं हुआ। मनसे हमेशा आशावादी और उत्साहपूर्ण बनो मनको हारने न दो। हमेशा स्मरण रखो ‘ मनके हारे हार है मनके जीते जीत ' मनमें उत्साह रहनेपर कठिन कार्य भी आसानीसे पूरे हो जाते हैं। निराशावादी और उत्साहहीन व्यक्ति आधे - अधूरे मनसे कार्यको करता है तो उसे असफलता ही मिलती है। अपनेको कमजोर और हीन न समझें ।अपना मनोबल मजबूत रखें। सदैव आत्म विश्वास रखें कि आप यह कर सकते हैं। नकारात्मक विचार रखनेवाले मित्रों से दूर रहें । हमेशा प्रसन्न रहें।

( ९ ) भूलो और क्षमा कर दो –  पारिवारिक जीवनमें परिजनों - मित्रों - सम्बन्धियोंसे कभी - कभी मतभेद भी हो सकता है। मतभेद उत्पन्न होनेपर शान्तिपूर्वक सुलझानेका प्रयास करें। बातचीत बन्द कर देना , तनावमें रहना अच्छा नहीं होता। अप्रिय बातोंको भूलना और क्षमा कर देना सर्वोत्तम नीति है। क्षमा कर देनेपर शान्तिका अनुभव होता है ,परस्पर प्रेमकी भावना बढ़ती है सम्बन्धोंमें निकटता आती है। अपनी गलतियोंपर क्षमा माँगनेमें भी संकोच न करें।

( १० ) परोपकारी बनें - दूसरोंकी मदद करनेमें पीछे न रहें। तन - मन - धनसे निर्धन , अपाहिज , रोगीकी यथाशक्ति मदद करें। जरूरतमन्दोंकी मदद करना ही धर्म है।‘ पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ' का पालन करें।स्मरण रखें कि सुख बाँटनेसे सुख बढ़ता है ' परोपकारः पुण्याय ' ( वेदव्यास ) परोपकार अर्थात् दूसरोंकी भलाई करना , सुख देना ही पुण्य कार्य है। अतएव पीड़ितोंकी नि : स्वार्थ भावसे सेवा करना , सुख पहुँचाना ही सबसे उत्तम पुण्य कार्य है।

स्मरण रखिये


परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥